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एकीभाव स्तोत्र : २१७ ध्यानाहूतः । हदयमेव कमलं, हृदयकमलं, लोकानां उपहार: लोकोपकारः ।। १० ।।
अन्वयार्थ (हे देव !) हे स्वामिन् ! जब ( भवन्मृतिशैलोपवाही) आपके शरीररूपी पर्वतके पास से बहने वाली ( हृद्यः) मनोहर ( मरुद्अपि) हवा भी ( प्राप्तः) [ मन्] प्राप्त होती हुई (पुंसां) पुरुषों के (निरबाधिरुजां धूलिबन्धम् ) मर्यादारहित रोगरूपी धूली के संसर्गको (सद्यः) शीघ्रही (धुनोति ) दूर कर देती है । (तु ) तब ( ध्यानाहूतः ) ध्यान के द्वारा बुलाये गये (त्वम् ) आप ( यस्य ) जिसके ( हृदयकमलं ) हृदयरूपी कमल में (प्रविष्टः ) प्रविष्ट हुए हैं ( तस्य ) उस पुरुष को (इहभुवने) इस संसार में ( क:) कौनसा ( लोकोपकारः) लोगों का उपकार ( अशक्यः ) अशक्य है-नहीं करने योग्य है अथात् कोई भी नहीं।
भावार्थ हे नाथ ! जबकि आपके शरीर के पाससे बहन वाली वायु भी, लोगों के तरह-तरह के रोग दूर कर देती है । तब आप जिस भव्यपुरुष के हृदय में विराजमान हो जाते हैं वह संसार के प्राणियों का कौन-सा उपकार नहीं कर सकता–अर्थात् लोक की सच्ची-सजीव सेवा करना अथवा आहार-पान, औषधादि के द्वारा दीन-दुःखियों की सेवा कर उन्हें दुःख से उन्मुक्त करना तो सरल है। परन्तु जब कोई भद्रमानव जिनेन्द्र भगवान् को अपने हृदयवर्ती बना लेता है अर्थात् चैतन्य जिन प्रतिमा को अपने हृदयकमल में अंकित कर लेता है, ( और स्तुतिपूजा-ध्यानादि के द्वारा उनके पवित्र गुणों का स्तवन-पूजन-वंदनादि किया करता है, एवं उनके नक्शे कदम पर चलकर तदनुकूल प्रवृत्ति करने लगता है तब उस भव्य पुरुष के अनादिकालीन कर्मबंधन भी उसी तरह शिथिल होने लगते हैं जिस तरह चन्दन के वृक्ष पर मोर के आने पर सर्पो के बन्धन ढीले पड़कर नीचे खिसकने लगते हैं ।)