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२१६ : पंच स्तोत्र
( नराणाम् ) मनुष्यों के ( मानरोगं ) मान-अहंकाररूपी रोग को ( कथं हरति ? ) कैसे हर सकता है ? अर्थात् नहीं हर सकता ।
भावार्थ-पत्र का उना हुआ नाम भी दूसरे साधारण पत्थरोंके समान ही है। रत्नमय होना उसकी कोई विशेषता नहीं कही जा सकती; क्योंकि उसके समान और भी रत्न होते हैं परन्तु उसमें मानहरण करने की शक्ति नहीं होती, इस कारण से मानस्तम्भ में मनुष्यों के मान हरण की शक्तिका अस्तित्व मालूम नहीं होता। अतएव यह स्पष्ट है कि उसकी ऐसी शक्ति में आपकी समीपता ही कारण हैं। यदि आपकी समीपता न होती तो गौतम जैसे महामानी विद्वानों का अभिमान कैसे दूर होता ? इस कारण उस रत्नमयी मानस्तम्भ में यह अपूर्वशक्ति आपके प्रसाद से ही प्राप्त हुई जान पड़ती है ।। ९ ।।
हृद्य: प्राप्तो मरुदपि भवन्मूर्ति शैलोपवाही,
सद्यः पुंसां निरवधिरुजा धूलिबन्धं धुनोति । ध्यानाहूतो हृदयकमलं यस्य तु त्वं प्रविष्ट
स्तस्याशक्यः क इह भुवने देव लोकोपकारः ।। १० ।। प्रभुतन पर्वतपरस पवन उरमें निवहै है । तासो ततछिन सकल रोगरज बाहिर है है ।। जाके ध्यानाहूत बसो उर अंबुज कौन जगत उपकार करन समरथ सो टीका - हे देव ! भवन्मूर्तिशैलोपवाही मरुदपि वायुरपि हृद्य: अनुकूलः प्राप्तः सन् पुंसांजनानां सद्यस्तत्कालं निरवधिरुजा धूलिबंधं निमर्यादं रेणुसमूहं धुनोति स्फीटयति । भवतः मूर्ति शरीरं सैव शैल: पर्वतस्तं उपवहतीति निरवधयः मर्यादारहिता: या रुजाः रोगास्तएव धूलयस्तासांबन्धः समूहस्तं । तु पुनस्त्वं ध्यानाहूतः सन् यस्य प्राणिनो हृदयकमल प्रविष्टः तस्य प्राणिनः इह भुवने कः लोकोपकारः अशक्यो भवति । अपि तु न कोपीत्यर्थः । ध्यानेन आहूत: आकारितः
माहीं ।
नाहीं ॥ १० ॥