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एकीभाव स्तोत्र : २१३ तत्किं श्रेयोः वर्तते । यत्श्रेय:कल्याणं हेमाभासादिष्वयमेव अहरह: प्रतिदिनं मां न अभ्युपैति मां न प्राप्नोति अपितु अभ्युपैति इत्यर्थः ।। ७ ।।
अन्वयार्थ हे जिनेन्द्र ! ( यात्रया) विहार के द्वारा (त्रिलोकीम् ) तीनों लोकों को (पुनतः) पवित्र करने वाले ( ते) आपके (पादन्यासादपि) चरणों के रखने मात्र से ही जब ( पद्म ) कमल (हेमाभासः ) सुवर्ण-सी कान्ति बाला ( सुरभिः) सुगन्धित (च) और ( श्रीनिवास:) लक्ष्मी का गृह-शोभा का स्थान हो जाता है। तब (हे भगवन् ! ) हे स्वामिन् ! ( त्वयि ) आपके ( मे ) मेरे ( अशेषम् ) समस्त ( मनः) पन को ( सर्वाङ्गेण) सर्व अङ्गों के द्वारा (स्पृशतिसति ) स्पर्श करने पर (तत्) वह (किंश्रेयः ?) कौन-सा कल्याण है ? ( यत् ) जो ( माम्) मुझे ( अहरहः) प्रतिदिन ( स्वयं ) अपने आप ( न अभ्युपैति ) प्राप्त नहीं होता है।
भावार्थ-सकल परमात्मा अर्हत जब जीवन्मुक्तरूप सयोगकेवली अवस्था में विहार करते हैं तब उनके विहार से तीनों लोक पवित्र हो जाते हैं; और देव गण उनके पवित्र चरणों के नीचे कमलों की रचना कर दिया करते हैं और वे कमल जब जिनेन्द्रदेव के चरणों के स्पर्श से सुवर्ण-सी कान्ति वाले सुगन्धित एवं लक्ष्मी के निवास बन जाते हैं । तब मेरा मन आपको सर्वाङ्ग रूप से स्पर्श कर रहा है अर्थात् मेरे मन-मन्दिर में चैतन्य जिन प्रतिमा का सर्वाङ्ग रूप से स्पर्श हो रहा है । अतएव मुझे कल्याणकों का प्राप्त होना उचित ही है । जो भव्यप्राणी जिनेन्द्र भगवान् का निष्कपट रूप से भक्तिपूर्वक स्मरण, चितवन एवं ध्यान करता है उसे सर्व सुख प्राप्त होते ही हैं इसमें कोई सन्देह नहीं है ।। ७ ।। पश्यन्तं त्वद्वचनममृतं भक्तिपात्र्या पिबन्तं,
कारण्यात्पुरुषमसमानन्दधाम प्रविष्टम् । त्वां दुरस्मरमदहरं त्वत्प्रसादैक भूमि,
क्रूराकाराः कथमिवरुजा कण्टका निलुंठन्ति ।। ८ ।।