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२९२ : पंच स्तोत्र किसी तरह बड़े कष्ट से ( प्राप्ताएव ) प्राप्त कर ली गई है । फिर भी, (हिमकरहिमव्यूहशीते) चन्द्रमा और बर्फ के समूह मे भी शीतल (तस्याः ) उसके ( मध्ये) बीच में (नितान्तम्) अत्यन्त रूप से ( निर्मग्नं ) डूबे हुए ( माम् ) मुझको ( दुःखदावोपतापाः) दुःखरूपी दावानल के सन्ताप को (कथं न जहति ) क्यों नहीं छोड़ते हैं।
भावार्थ- हे स्वामिन् ! मुझे इस संसाररूप विषम अटवी में भ्रमण करते हुए और दुःखों को सहते हुए अनन्तकाल बीत गया है । अब पुढे बड़े भारी जामोद ते मह आपकी स्याद्वादनय रूप अमृतरस से भरी हुई वापिका--बावड़ी प्राप्त हुई है जो चन्द्रमा और बर्फ से भी अत्यन्त शीतल है। ऐसी वापिका में उन्मज्जन करते हुए मेरे क्या थोड़े से दुःख-सन्ताप दूर न होंगे? किन्तु अवश्य ही दूर होंगे ।। ६ ।।। पादन्यासादपि च पुनतो यात्रा ते त्रिलोकी,
हेमाभासो भवति सुरभिः श्रीनिवासश्च पद्मः । सर्वाङ्गेण स्पृशति भगवंस्त्वय्यशेषं मनो मे,
श्रेयः किं तत् स्वयमहरहर्यन्नमामभ्युपैति ।। ७ ।। श्री विहार परिवाह होत शुचिरूप सकल जग। कमल कनक अभाव सुरभि श्रीवास धरत पग ।। मेरो मन सर्वंग परस प्रभु को सुख पावै । अवसो कौन कल्यान जोन दिन दिन ढिग आवै ।।७।।
टीका-हे भगवन् ! ते तव पादन्यासादपि भवच्चरणारोपणादपि पद्मः कमलं हेमाभासो भवति । हेमवदाभासा यस्य स च पुन: पद्यः तव पादन्यासात् श्रीनिवास: लक्ष्म्या.गृहं भवति । श्रियाः निवास: श्रीनिवासः, कथंभूतस्य तव यात्रया भव्य प्राणि प्रबोधार्थं विहारः । क्रमेण त्रिलोकी पुनः पवित्रयत:, त्रयाणां लोकानां समाहारत्रिलोकी लां । हे देव त्वयि परमश्वरे सर्वाङ्गेण सर्व शरीरेण मे मम अशेषं मनोन्तःकरणं स्पृशति सति
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