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________________ एकीभाव स्तोत्र : २११ अर्थात् अवश्य करेंगे। जो भद्र मानव आपका भक्तिपूर्वक निरन्तर ध्यान एवं चिन्तन करता है उसके दुःख दूर होना तो सहज ही है किन्तु उसके जटिल कर्मों का बन्धन भी ढीला पड़ कर नष्ट हो जाता है और आत्मा विकसित होता हुआ परमात्मा पद को प्राप्त कर लेता है ।। ५ । जन्माटव्यां कथमपि मया देव दीर्घं भ्रमित्वा, प्राप्तैवेयं तवनयकथा स्फारपीयूषवापी ! तस्या मध्ये हिमकर हिमव्यूहशीतेनितान्तं, निर्मग्नं मां न जहति कथं दुःखदावोपतापाः ।। ६ ।। भव वन में चिरकाल भ्रम्यो कछु कहिय न जाई, तुम थुति कथा पियूष वापिका भागन पाई । शशितुषार धनसार हार शीतल कहिं जासम करत न्होंन तामहि क्यों न भवताप बुझैं मम ॥ ६ ॥ टीका - हे देव ! भो स्वामिन्! मया जन्माटव्यां भवारण्ये दीर्घं भ्रमित्वा कथमपि महताकष्टेन इयमेव तव भगवतः नयकस्थाफारपीयूषवापी अनेकान्तमतोदार सुधारसदीर्घिका प्राप्ता लब्धा जन्मैवअटवी जन्माटवी तस्यां जन्माटव्यां, नयकथैवस्फारपीयूषवापी नयकथास्फारपीयूषवापी तस्यावापिकाया मध्ये नितान्तमतिशयेन निर्मग्नं मां दुःखदावीप तापाः कृच्छादावानलपरितापाः कथं न जहति किं न त्यजनि? अपि तु जहतीत्यर्थः । दुःखान्येव दावा: दुःखदावास्तेषां उपतापाः । कथंभूतावापी मध्ये हिमकरश्चन्द्रधिमस्तस्त व्यूहः समूहस्तद्वत् शीते शीतलं इत्यर्थः ।। ६ ।। अन्वयार्थ - (हे देव !) हे स्वामिन्! ( मया ) मेरे द्वारा ( जन्माटव्यां ) संसाररूपी अटवी में ( दीर्घं ) बहुत काल तक ( भ्रमित्वा ) घूमकर अथवा घूमने के बाद ( तव ) आपकी ( इयम् ) यह (नयकथा ) स्याद्वाद नय कथारूपी (स्फारपीयूषवापी) बड़ी भारी अमृत रस से भरी हुई बावड़ी ( कथमपि )
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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