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२१० : पंच स्तोत्र
करोगे. धरोगे ॥५॥
प्रभु सब जगके बिनाहेत, बाँधव निरावरण सर्वज्ञ शक्ति जिनराज भक्ति रचित ममचित्त सेज नितवास मेरे दुख- संताप देख किम धीर टीका - हे भगवन् ! त्वं एक अद्वितीय लोकस्य निर्निमित्तेन निष्कारणेन बांधवो वर्तसे । त्वय्येवासौ शक्ति: सकल विषया वर्तते सकलं विषयो यस्याः सा । कथंभूताशक्तिः अप्रत्यनीका प्रतिषेधरहिता । कीदृशीं तां मामिकां मदीयां चित्तशय्यां चिरं चिरकालं अधिवसन् । ममेयं मामिकां तां चित्तमेवशय्या चित्तशय्या तां । कीदृशों चित्तशय्यां भक्त्यास्फीतां महतीभक्तिः तया स्फीतां तां । यतः कारणात् निष्कारणं बंधुस्तत् कारणात् मय्युत्पन्नं क्लेशयूथं कष्टसमूहं कथमिव सहेथा: किमिव सहनं कुर्वीथा, क्लेशानां यूथ क्लेशयूथम् ।। ५ ।।
अन्वयार्थ -- (हे भगवन् !) हे भगवन् ! जब ( त्वम् ) आप (लोकस्य ) संसार के प्राणियों के (निर्निमित्तेन) स्वार्थ रहितबिना किसी प्रयोजन के ( एकः ) अद्वितीय ( बन्धु असि ) बन्धुहित करने वाले हो। और ( असौ ) यह (सकलविषया - शक्तिः ) सब पदार्थों को विषय करने वाली शक्ति भी ( त्वयि ) आपमें ही ( अप्रत्यनीका) बाधा रहित है । ( ततः ) तब ( भक्तिस्फीताम् ) भक्ति के द्वारा विस्तृत ( मामिकां ) मेरीहमारी ( चित्तशय्याम्) मनरूपी पवित्र शय्या पर ( अधिवसन् ) निवास करने वाले आप ( मयि उत्पन्नम् ) मुझ में उत्पन्न हुए ( क्लेशयूथं ) दुःख समूह को ( कथमिव ) कैसे (सहेथा: ) सहन करोगे, अर्थात् नहीं करोगे ।
भावार्थ – हे नाथ ! आप संसारी जीवों के अकारण बन्धु हैं और आपकी सकल पदार्थविषयक यह अपूर्व एवं अनन्तशक्ति प्रतिपक्षी कर्मों के प्रतिघात से रहित है, क्योंकि वह कर्म के क्षय से उत्पन्न हुई है । फिर आप चिरकाल तक हमारे पवित्र मनमन्दिर में निवास करते हुए भी क्या दुःखों का नाश नहीं करेंगे
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उपकारी.
तिहारा ।