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२०६ : पंच स्तोत्र
टीका–जिनेषु गणधरदेवेषु वरः श्रेष्ठस्तस्यामंत्रणे हे जिनवर ! चिरं चिरकालं तत्त्वविद्याभियुक्ताः तत्वज्ञानिनोगणधर-देवादयः त्वामेव ज्योतीरूपं परतेजः स्वरूपं अर्ह इत्याहुः भणन्ति तत्त्वविद्याभिः अभियुक्ताः संयुक्ताः तत्त्वविद्याभियुक्ताः ज्योतिस्तेजः एवरूपं यस्य स तं । कीदृशं त्वा-दुरितानां पापानां निवहः समूहः स एव ध्वान्तं तमस्तस्य विध्वंसस्यहेतुः कारण तं भो देव च पुन: मम चेतोवासे मनोगृहे स्फारं बहुलं यथास्यात्तथा उद्भासमानः दीप्यमानः सन् त्वं भवसि जातोसि । तस्मिन् मनोगृहे अंहः पापं तदेव तमोऽधकारं । कथमिव किमिव ? वस्तुतो-निश्चयात् वस्तुं स्यातुं ईष्टे स्थितिं करोति न ईष्टे इत्यर्थ ।। २ ।।
अन्वयार्थ---(हे जिनवर ) कर्म शत्रुओंको जीतने वालों में श्रेष्ठ हे जिनेन्द्र ! जब कि (तत्वविद्याभियुक्ताः) तत्वज्ञानी गणधरादिदेव (चिरं ) चिरकाल से ( त्वाम् एव ) आपको ही (दुरितनिवहध्यांतविध्यंतहेतु) पापसमूहरूपी अन्धकार के नाश करने में कारणभूत ( ज्योतीरूपम् ) तेजरूप ज्ञानस्वरूप (आहुः) कहते हैं । (च) और आप ( मम ) मेरे ( हमारे ) (चेतोवासे) मनरूपी मन्दिर में (स्फार ) अत्यन्त रूपसे निरन्तर ( उद्भासमानः ) प्रकाशमान (भवसि) हो रहे हो तब (तस्मिन् ) उस मन्दिर में ( वस्तुतः) निश्चय से ( अंहः तमः) पापरूपी अन्धकार (वस्तुं) निवास करने के लिए ठहरने के लिए (कथभिव) किस तरह (ईष्टे) समर्थ हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता।
भावार्थ-हे नाथ ! जबकि आपको, अतिशय बुद्धि के धारक गणधरादि देवों ने पापरूपी अन्धकारको नाश करनेके लिये सूर्य के समान कहा है और आप मेरे मन-मन्दिरमें अच्छी तरह से प्रकाशमान भी हो रहे हैं, तब उसमें पापरूपी अन्धकार कैसे ठहर सकता है ? अर्थात् जो आपको अपने हृदय में धारण करता है उसके सब पाप नष्ट हो जाते हैं ।। २ ।।