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एकीभाव स्तोत्र : २०५ अन्वयार्थ-हे (जिनरवे) हे जिनसूर्य ! ( मया-सह ) मेरी आत्माके साथ ( स्वयं) अपने आप (एकीभावं ) तन्मयताको (गत इव) प्राप्त हुए की तरह (दुर्निवारः) बड़ी कठिनाई से दूर करने योग्य ( यः ) जो ( कर्मबंध ) ज्ञानावरणादि अष्ट प्रकार का अथवा प्रकृति स्थिति-अनुभाग और प्रदेश के भेद-से होने वाला चार प्रकार का कर्मबंध ( भव-भवगतः) [सन् ] प्रत्येक पर्याय में साथ जाता हुआ (घोरम् ) भयानक (दुःखम् ) दुःख को (करोति ) करता है। ( त्वयि ) आपके विषय में होने वाली (भक्ति ) भक्ति अनुरागविशेष (चेत् ) यदि ( तस्यापि अस्य ) उस कर्मबन्ध और इस दुःख के भी (उन्मुक्तये ) छुड़ाने-दूर करने के लिये है ( तर्हि ) तो फिर (तया) उस भक्ति के द्वारा (अपरः) दूसरा (कः ) कौन ( तापहेतुः) सन्ताप का कारण ( जेतुं शक्यः न भवति) जीता नहीं जा सकता ? अर्थात् अवश्य जीता जा सकता है।
भावार्थ-हे जिनेन्द्र ! जब आपकी समीचीन भक्ति के द्वारा चिरपरिचित और अत्यन्त दुःखदायी एवं आत्मा के साथ दूध पानी की तरह मिले हुए कर्मबन्ध न भी दूर किये जाते हैं तब दूसरा ऐसा कौनसा सन्ताप का कारण है जो कि उस भक्ति के द्वारा दूर नहीं किया जा सकता अर्थात् दुःखके सभी कारण नष्ट किये जा सकते हैं ।। १ ।। ज्योतीरूपं दुरितनिवहध्वांतविध्वंसहेतु,
त्वामेवाहुर्जिनवर चिरं तत्त्वविद्याभियुक्ताः । चेतोवासे भवसि च मम स्फारमुद्भासमान
स्तस्मिन्नंहः कथमिव तमो वस्तुतो वस्तुमीष्टे ।।२।। तुम जिन ज्योतिस्वरूप, दुरितअंधियार निवारी। सो गणेश गुरु कहैं, तत्त्व विद्या-धन धारी ।। मेरे चित-घरमाँहि. बसौ तेजोमय यावत । पापतिमिर अवकाश, तहाँ सो क्योंकर पावत ।। २ ।।