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२०० : पंचस्तोत्र इन्द्रादिक श्रीगंगा जेह। उत्पति थान हिमाचल येह ।। जिन मुद्रा-मंडित अति लसै । हर्ष होय देखें दुःख नौ ।। शिखर ध्वजागण सोहैं एम। धर्म सुतरुवर पल्लव जेम ।। यों अनेक उपमा आधार । जयो जिनेश जिनालय सार ।। १७ ॥
शीश नवाय नमत सुरनार । केशकांति मिश्रित मनहार !! नख हो? बरतें जिन । हलानिणि गरित किराग समाज ।। स्वर्ग नाग नरनायक संग। पूजत पाय-पद्य अतुलंग ।। दुपट कर्म दल-दलन सुजान। जैवंतो परतो भगवान ।। १८॥ !!
सोकर जागै सो धीमान । पंडित सुधी सुमुख गुणवान ।। आपन मंगल हेतु प्रशस्त । अवलोकन चाहै कुछ बस्त ।। और वस्तु देखै किस काज । जो तुम मुख राजै जिनराज ।। जीन लोकको मंगल-थान। प्रेक्षणीय तिहुँ जग-कल्यान ।।१९।।
धर्मोदय तापस गृह कीर । काव्यबंध वन-पिक तुम वीर । मोक्षमल्लिका मधुप रसाल । पुण्य कथा कज सरसि मराल ।। तुम जिनदेव सुगुण मणिमाल । सर्वहितकर दीनदयाल ।। ताको कौन न उन्नत काय । धरै किरीट महि हर्षाय ।।२०।।
केई वांछै शिवपुर वास । केई करै स्वर्ग-सुख आस ।। पचै पंचानल आदिक ठान । दुख बँधे जस बँधे अयान ।। हम श्रीमुख वाना अनुभवै। सरधा पूरब हिरदै ठ8 ।। तिस प्रभाव आनन्दित रहैं। स्वर्गादिक सुख सहजै लहैं ।। २१ ।।
न्होन महोच्छव इन्द्रन कियो । सुरतिय मिल मंगल पद लियो । सुयश शरद चन्द्रोपम सेत । सो गंधर्व गान कर लेत ।। और भक्ति जो जो जिस जोग । शेष सुरन कीनी सुनियोग ।। अब प्रभु करै कौन सी सेव । हम चित भयो हिंडोलो एव ।। २२ ।।