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जिनचतुर्विशतिका स्तोत्र : १९१ तोष बढावन तुम मुखचंद । जन नयनामृत करन अमन्द ।। सुन्दर दुतिकर अधिक उजास । तीन भुवन नहिं उपमा तास ।। ताहि निरखि सनयन हम भये । लोचन आज सुफल कर लये ।। देखन योग जगत में देख । उमग्यो उर आनंद विशेख ।। ११ ।। कैयक यों माने मतिमंद । विजितकाम विधि ईश मुकंद ।। ये तो हैं वनितावश दीन । काम-कटक जीतन बलहीन ।। प्रभु आगै सुरकामिनि करें। ते कटाक्ष सब खाली परें ।। यातें मदन-विध्वंसन वीर । तुम भगवंत और नहिं धीर ।। १२ ।। दर्शनप्रीति हिये जब जगी। तबै आम्र कोंपल बहु लगो ।। तुम समीप उठ आवन ठयो । तर सो सघन प्रफुल्लित भयो ।। अबहूँ निज नैनन ढिग आय । मुख-मयंक देख्यो जग राय ।। मेरो पुत्र-विरख इहि बार । सुफल फल्यो सब सुख दातार ।। १३ ।।
दोहा त्रिभुवन-वनमें विसतरी, काम दवानल . जोर । वाणी वरषाभरण सों, शांति करहु चहुँ ओर ।। इन्द्र मोर नाचै निकट, भक्ति भाव धर मोह । मेघ सघन चौबीस जिन जैवंते जग होय ।। १४ ।।
चौपाई छन्द १५ मात्रा भविजन कुमुदचन्द सुख दैन । सुर-नर नाथ प्रमुख जग जैन ।। ते तुम देख रमै इहि भाँति । पहुप गेह लह ज्यों अलि पति ।। शिरधर अंजुलि भक्ति समेत । श्रीगृह प्रति परिदक्षण देत ।। शिव-सुख को सी ग्रापति भई। चरणछाँहसों भव-तप गई ।। १५ ।। वह तुम पद नख दर्पण देव । परमपूज्य सुन्दर स्वयमेव ।। तामैं जो भविभाग विशाल । आनन अवलोके चिरकाल ।। कमला-कीरति कांति अनूप । धीरज प्रमुख सकल सुखरूप ।। वे जग-मंगल कौन महान । जो न लहै वह पुरुष प्रधान ।। १६ ।।