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१९८ : पंचस्तोत्र सुरपति जान अखंडित बहै। तृण ज्यों राज्य तज्यो तुम वहे ।। जिन छिनमें जग-महिमा दली । जीत्यो मोह-शत्रु महाबली ।। लोकालोक अनंत अशेख। कोनों अंत ज्ञानसों देख ।। प्रभु प्रभाव यह अद्भुत सबै। अवर देव में भूल न क3 ।। ५॥ पात्रदान तिन दिन-दिन दियो । तिन चिरकाल महातप कियो ।। बहुविधि पूजाकारक वही। सर्वशील पालें उन सही ।।
और अनेक अमल गुण रास । प्रापति आप भये सब तास ।। जिन तुम सरधासों कर टेक । दृग वल्लभ देखें छिन एक ।।६॥ निजग-तिलक तुम गुणगण जेह । भव- भुजंग विषहर-मणि तेह ।। जो उर कानन माहिं सदीव । भूषण कर पहरै भवि जीव ।। सोई महामती संसार । सो श्रुतसागर पहुँचे पार ।। सकल लोक में शोभा लहै। महिमा जाग जगत में बहै ।। ७ ।।
दोहा सुर समूह ढोले चमर चंदकिरण द्युति जेम। मवतन-बधू कटाक्षते, चपल चलें अति एम ।। छिन-छिन ढलकै स्वामिपर, सोहत ऐसो भाव । किधौं कहत सिधि लच्छसों, जिपपतिके दिग आव ।।८।।
चौपाई छन्द १५ मात्रा । शीश छत्र सिंहासन सलैं। दिपै देह-दुति चामर ढलें। बाजें दुंदुभि बरसैं फूल । ढिग अशोक बाणी सुखमूल ।। इहविधि अनुपम शोभा मान । सुर नर सभा पदमनी भान ।। लोकनाथ बंदै शिरनाय ! सो हम शरण होहु जिनराय ।। ९ ।। सुर-गजदंत कमल-वन माहिं। सुर नारीगण नाचत जाहि ।। बहुविधि बाजे बाजै थोक । सुन उछाह उपजे तिहुँ लोक ।। हर्षत हरि जै जै उच्चरै। सुमन-माल अपछर कर धरै ।। यों जन्मादि समय तुम होय । जपो देव देवागम सोय ।।१०।।