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कविवर भूधरदासजी कृत पुरातन हिन्दी पद्यानुवाद
जिनचतुर्विंशतिका
दोहा सकल सुरासुर पूज्य नित, सकल सिद्धि दातार । जिनपद बन्दूँ जोरकर, अशरन जन आधार ।।
चौपाई छन्द १५ मात्रा श्री सुखावास महोकुल धाम । कीरति-हर्षण-थल अभिराम ।। सुरसुति के रति-महल महान ! जय जुवतीको खेलत थान ।। अरुण तरण वांछित वरदाय । जगतपूज्य ऐसे जिन पाय ।। दर्शन प्राप्त करै जो कोय । सब शिवथानक सो जन होय ।।१।।
निर्विकार तुम सोम-शरीर । श्रवण सुखद वाणी गम्भीर ।। तुम आचरण जगत में सार । जब जीवनको है हितकार ।। महानिंद भवमारू देश । तहाँ तुंग-तरु तुम परमेश ।। सघन छाँह मंडित छवि देत । तुम पंडित से सुख हेत ॥२॥
गर्भ-कूपनै निकस्यौ आज । अब लोचन उघरे जिनराज ! मेरो जन्म सफल भयो अबै। शिव-कारण तुम देखे जबै ।। जगजन-मैन कमल वन खंड । विकसावन शशि-शोक विहंड।। आनंद करन प्रभा तुम तणो । सोई अमीझरन चाँदणी ।। ३ ।।
सब सुरेन्द्र शेखर शुभ रैन । तुम आसन तट माणिक ऐन ।। दोऊ दुति मिलि झलक जोर । मानो दीपमाल दुहँ ओर ।। यह सम्पत्ति अस यह अनचाह ! कहाँ सर्वज्ञानी शिवनाह ।। तातै प्रभुता है जगमाहेि। सही असम है संशय नाहिं ।। ४ ।।