________________
१९६ : पंचस्तोत्र
संस्कृत टीका प्रशस्तिः उपशम इव मूर्तिः पूतकीर्तिः स तस्माद्
___जयति विनयचन्द्रः सच्चकोरैकचन्द्रः । जगदमृतसगर्भाः शास्त्रसन्दर्भगर्भाः
शुचिचरितसहिष्णोर्यस्य धिन्वन्ति वाचः ।। संवत्सरे वसमुनिसप्तेन्दुमिते (१७७८) भाद्रपदकृष्णद्वादशीतियों मोजावादनगरे श्रीमूलसङ्गे नन्द्याम्नाये बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारकोत्तमजी श्रीश्री १०८ देवेन्द्रकीर्तिजी कस्य शासनकारि बुधजी श्रीहीरानन्दजी कस्य शिष्येन विनयवता चोखचन्द्रेण स्वशयेन स्वपठनार्थं लिखितेयं भूपालचतुर्विशतिका टीका । वाचकानां सततं शं भूयात् । यिनयचन्द्रस्यार्थमित्याशाधरविरचिता भूपालचतुर्विशतेजिनेन्द्रस्तुतेपीका
परिसमाप्ता । अर्थ—सज्जनरूपी चकोर के लिए चन्द्रमा के समान तथा पवित्र कीर्ति के धारक वह विनयचन्द्र जयशील हों, जिनकी पवित्र चरित्र के कारण वीतरागता को प्राप्त अमृत रस से भरी हुई तथा शास्त्रों के सन्दर्भ से परिपूर्ण वाणी संसार के कल्याण के लिए आधारभूत है ।
इस प्रकार विनयचन्द्र के लिए श्री आशाधर के द्वारा विरचित भूपालचतुर्विशतिका नामक जिनेन्द्र स्तुति की टीका समाप्त हुई।
संवत् १७७८ भाद्रपद कृष्ण १२ तिथि को मोजाबाद नगर में श्री मूलसंघ नन्दि-आम्नाय बलात्कारगण सरस्वतीगच्छ कुन्दकुन्दाचार्यन्वय में भट्टारकोत्तम श्री श्री १०८ देवेन्द्रकीर्तिजी हुए । उनके आज्ञाकारी शिष्य बुधजी हीरानन्दजी के विनयशील शिष्य चोखचन्द्र ने अपने पढ़ने के लिए अपने हाथ से यह भूपालचतुर्विशतिका टीका लिखी । वाचकों का सर्वदा कल्याण होवे ।
इति भूपालकविप्रणीता जिनचतुर्विंशतिका समाप्ता
* 'अर्जान' इति मूलपाठः ।