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जिनचतुर्विंशतिका स्तोत्र : २०१
जिनवर जन्म कल्यानक थोस इन्द्र
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पुलकित अंग पिता- घर आय । नाचत विधिमें महिमा गाय ॥ अमरी बीन बजावें सार । धरी कुचाग्र करत झंकार | इहविधि कौतुक देख्यो जबे । औसर कौन कहि सकै अबै ।। २३ ।।
श्रीप्रतिबिम्ब मनोहर एम। विकसित वदन कमल दल जेम || ताहि हेर हरखें दृग दोय । कह न सकूँ इतनी सुख होय ।। तब सुरसंग कल्यानक काल । प्रगट रूप जोवै जग पाल || इकटक दृष्टि एक चितलाय । वह आनंद कहाँ क्यों जाय ॥ २४ ॥
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देख्यो देन - रसायन धाम । देख्यो नवनिधि को विसराम || चिंतारयन सिद्ध रस अबै । जिनगृह देखत देखें सबै || अथवा इन देखे कछु नहि। यह अनुरागी फल जगमहि ॥ स्वामी सरयो अपूरब काज । मुक्ति समीप भई मुझे आज ।। २५ ।।
अब बिनवै 'भूपाल' नरेश। देखे जिनवर हरन कलेश || नेत्र कमल विकसे जगचंद्र । चतुर चकोर करन आनंद || ति जलसों यो पावन भयो । पाप ताप मेरो मिट गयो || मो चित्त हैं तुम चरनन माहिं । फिर दर्शन हूज्यो अब जाहिं ।। २६ ।।
छप्पय छन्द
विशालराय 'भूपाल'
मन
में
इहिविधि बुद्धि कियो ललित द्युति पाठ, हिये सब समझ टीका के अनुसार, अर्थ कछु कहीं शब्द कहिं भाव, जोड़ भाषा जस आतम पवित्र कारण किमपि, बाल- ख्याल सो जानियो । लोज्यो सुधार 'भूधर' तणी, यह विनती बुध मानियो || २७ ||
महाकवि ।
सकै नवि ||
आयो ।
गायो ||