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________________ जिनचतुर्विंशतिका स्तोत्र : १९३ वाले (अस्माकम् ) हम लोगों की (दृष्टेः) आँखों को ( यत्र ) जहाँ (अहो ) आश्चर्यकारक ( इयान् ) इतना ( महोत्सव - रस: } महान् आनन्द ( वर्तते ) हो रहा है ( तत्र ) वहाँ ( तदा ) उस समय ( कल्याणकाले ) पंचकल्याणकों के काल में ( अनिमेषलोचनतया ) टिमकार रहित नेत्रों से ( भवन्तम् ) आपको ( साक्षात् ) रूप से (ईक्षितवताम् ) देखने वाले (देवानाम् ) देवों के (वृत्त: ) प्रकट हुआ (सः) वह आनन्द (किम् ) क्या ( वर्ण्यते ) वर्णित किया जा सकता है अर्थात् नहीं किया जा सका। भावार्थ - हे भगवन् ! जब हमें आपकी जड़ प्रतिमा के दर्शन करने से इतना अपार आनन्द होता है तब कल्याणकों के समय आपके दर्शन करने वाले देवों को जो आनन्द होता होगा उसका कौन वर्णन कर सकता है ? ।।२४।। किं दृष्टं धाम रसायनस्य महतां दृष्टं निधीनां पदं दृष्टं सिद्धरसस्य सद्म सदनं दृष्टं च चिन्तामणेः । दृष्टेरथवानुषङ्गिकफलैरेभिर्मयाद्य ध्रुवं मुक्तिविवाहमङ्गलगृहं दृष्टं - जिन श्री - गृह को देख रसायन का गृह देखा हे जिनराज ! देखा निधियों का निवास गृह, देखा सिद्ध-रसालय आज | चिन्तामणि- निकेतन देखा, अथवा इनसे है क्या लाभ । देखा मैंने आज मुक्तिका परिणय-मंगल-गृह अभिताभ ।। २५ ।। दृष्टे जिनश्रीगृहे ।। २५ ।। टीका — दृष्टमवलोकितं किं तत् धाम स्थानम्, कस्य रसायनस्य लाभोपायादिशस्तानां रसादीनां रसायनम् केन दृष्टं मया क्व सति जिन श्रीगृहे । अर्हतः श्रीमति चैत्यालये किंविशिष्टे दृष्टं दृष्टे तथा किं तत् पदं स्थानं केषां निधीनां पद्मशङ्कादीनां निधानानां किंविशिष्टानां महतां महद्भिराकांक्ष्यमाणानां तथा दृष्टम् । किं तत् सम महास्थानं कस्य सिद्धरसस्य समस्तसंस्कारोत्तीर्णस्य पारदस्य तथा दृष्टम् किं तत् सदनं स्थानं कस्य चिन्तामणेः चिन्तितार्थप्रदस्य रत्नविशेषस्य अथवा
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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