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१९४ : पंचस्तोत्र
किंकार्यकै: एभिः रसायनादिस्थानैः किंविशिष्टैः दृष्टैः किंविशिष्टैः एभिः आनुषङ्गिकफलैः गौणप्रयोजनैः । यतो दृष्टं किं तत् मुक्तिविवाहमङ्गलगृहं मुक्ति: श्रीप्रत्यासन्नाभूदिति भावः । केन मया कदा अद्य कथं ध्रुवं निश्चितं क्व सति दृष्टे जिन श्रीगृहे ||२५||
अन्वयार्थ ( जिनश्रीगृहे ) जिनमन्दिर अथवा जिनेन्द्ररूय लक्ष्मी गृह के ( दृष्टे 'सति') देखे जाने पर ( मया ) मैंने ( रसायनस्य धाम दृष्टम् ) रसायन का घर देख लिया, ( महतां निधीनाम् पदम् दृष्टम् ) बड़ी-बड़ी निधियों का स्थान देख लिया, ( सिद्धरसस्य ) सिद्ध हुए रसऔषधि विशेष का ( सद्म दृष्टम् ) घर देख लिया, (च) और ( चिन्तामणेः ) चिन्तामणि रत्न का ( सदनम् दृष्टम् ) घर देख लिया । ( अथवा दृष्टैः एभिः आनुषङ्गिकफलैः किम् ) अथवा देखे हुए इन गौण फलों से क्या लाभ है ? (ध्रुवम् ) निश्चय से ( अद्य ) आज ( मया ) मैंने ( मुक्तिविवाहमङ्गलग्रहम् दृष्टम् ) मुक्तिरूपी कन्या के मंगल का घर देख लिया है ।
भावार्थ --- हे भगवन्! आपका दर्शन, रसायन, निधि, सिद्धरस और चिन्तामणि की तरह उपकारी तो है ही परन्तु मुक्ति प्राप्ति का भी कारण है ।। २५ ।।
दृष्टस्त्वं जिनराजचन्द्र-विकसद्भूपेन्द्रनेत्रोत्पले स्नातं त्वन्नूतिचन्द्रिकाम्भसि भवद्विद्वच्चकोरोत्सवे । नीतश्चाद्य निदाघजः क्लमभरः शान्तिं मया गम्यते देव ! त्वद्गतचेतसैव भवतो भूयात् पुनर्दर्शनम् ।। २६ ।। हे जिनचन्द्र ! किये तव दर्शन औ' भूपति दृग-कुमुद-ललाम । विज्ञ चकोरोंको सुख प्रद तव संस्तुति- जलमें अति अभिराम ॥ स्नान किया है और आज ही शान्त किये हैं तापज क्लेश । अब जाता तव चिन्तन करता, तव दर्शन हो पुनः जिनेश || २६ ॥
टीका- अथ स्तोता भगवन्तं स्तुत्वा स्वाभिमतदेशं गन्तु विज्ञापयति । पुनर्दर्शनं चाशंसति । हे जिनराजचन्द्र ! जिनानां