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जिनचतुर्विंशतिका स्तोत्र : १८९ कृत्वा अभिलष्य वांछित्वा किं तत् शिवसुखं मोक्षसौख्यं न केवलं तत् अजरश्रीसंगमं च देवलक्ष्मीसंयोगमपि तर्हि यूयं किं कुरुथेत्याह । वयं तु पुनः इह लोके निर्विशामः अनुभवामः ! किं तत्तयोः शिवसुखमजरश्रीसङ्गमयोरुभयमपि द्वयमपि । कथं शश्वत् अनवरतं सततं कया लीलया अनायासेन किं कुर्वन्तः भावयन्तः पुन: पुनश्चेतसि निवेशयन्तः । किं तत् । तद्वचो वाक्यं कस्य ते तव जिनस्य किंविशिष्टस्य ? भूपतेर्भुवामूधिोमध्यलोकानां स्वामिनः ।।२१।
अन्वयार्थ (केचित् ) कितने ही मनुष्य (शिवसुखम् ) मोक्षसुख (च) और (अजरश्रीसङ्गमम् ) देवों की लक्ष्मी के संगम को (अभिलष्य) चाहकर (स्वाम् अशि) अपने शपको (क्लेशपाशेन) दुःखों के समूह से ( नियमयन्ति ) नियमित करते हैं—अर्थात् तरह-तरह की तपस्याओं और व्रत आदि के कठिन नियमों से अपने आपको दुःखी करते हैं (तु) किन्तु (वयम् ) हम लोक (शश्वत्) हमेशा (इह ) इस संसार में (ते भूपतेः) आप जगत्पालक के ( वचः भावयन्तः ) वचनों की भावना करते हुए (लीलया) अनायास ही ( तदुभयम् अपि ) उन दोनों अर्थात् मोक्ष और स्वर्ग को (निर्विशामः ) प्राप्त हो जाते हैं ।
भावार्थ-हे प्रभो ! जो मनुष्य आपके सिद्धान्तों से परिचित नहीं हैं-वे स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति के लिये तरह-तरह के नियम करते हैं--कठिन तपस्याओं के क्लेश उठाते हैं, फिर भी उन्हें प्राप्त नहीं कर पाते, पर हम लोग आपके उपदेश का रहस्य समझकर अनायास ही उन दोनों को प्राप्त कर लेते हैं । आपके वचनों की महिमा अपार है ।।२१।।
शार्दूलविक्रीडित देवेन्द्रास्तव मज्जनानि विदधुर्देवाङ्गना मङ्गलान्यापेतुः शरदिन्दुनिर्मलयशो गन्धर्वदेवा जगुः । शेषाश्चापि यथानियोगमखिला: सेवां सुराश्चक्रिरे तत् किं देव वयं विदध्म इति नश्चित्तं तु दोलायते ।।२२।।