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जिनचतुर्विंशतिका स्तोत्र : १८७ अन्वयार्थ (नाथ) हे स्वामिन् ! (सुप्तोस्थितेन ) सोकर उठे हुए ( सुमुखेन ) सुन्दर मुख वाले पुरुष के द्वारा ( सुमङ्गलाय ) कल्याण की प्राप्ति के लिये ( यदि मङ्गलम एव वस्तु द्रष्टव्यम् अस्ति) यदि मङ्गलरूप ही वस्तु देखी जानी चाहिए (तत्) तो ( अन्येन किम् ) और से क्या ? ( त्रैलोक्यमङ्गलनिकेतनम् ) तीनों लोकों के मङ्गलों के घर स्वरूप ( तव वक्त्रम् एव ) आपका मुख ही ( ईक्षणीयम् ) देखना चाहिये।
भावार्थ-यदि सोकर उठने के बाद नियम से किसी मङ्गल वस्तु को देखना चाहिए ऐसा नियम है तो जिनेन्द्र भगवान् के मुख को ही देखिये क्योंकि वह सब मंगलों का घर है ।।१९।।
शालविक्रीडित छन्द त्वं धर्मोदयतापसाश्रमशुकस्त्वं काव्यबन्धक्रमक्रीडानन्दनकोकिलस्त्वमुचितः श्रीमल्लिकाषट्पदः । त्वं पुन्नागकथारविन्दसरसीहंसस्त्वमुत्तंसकैः कैर्भूपाल न धार्यसे गुणमणिरङ्मालिभिमौलिभिः ।।२०।।' नाथ ! आप धर्मोदय-वन शुक, आप काव्य-क्रम-क्रीड़ा-रूप । नन्दन वन के पिक, सुजनों की चर्चा-सर के हंस अनूप ।। अतः आपको कौन गुणी जन गुण-मणि मालासे समवेत । अपने मंजुल मुकुट झुकाकर, नमन न करता भक्ति समेत ॥ २० ।।
अन्वयार्थ-(भूपाल) हे जगत्पालक ! (त्वम्) आप ( धर्मोदयतापसाश्रमशुकः) धर्म के अभ्युदयरूपी तपोवन के तोता हैं (त्वम्) आप (काव्यबन्धक्रमक्रीडानन्दनकोकिलः) काव्य-रचना की क्रमक्रीड़ा रूप नन्दनवन के कोकिल हैं। (त्वम् ) आप (पुन्नागकथारविन्दसरसीहंसः) श्रेष्ठ पुरुषों की कथारूपी कमल सरोवर के हंस हैं और ( त्वम् ) आप ( उत्तंसकः ) अपने आपको भूषित करने–सजाने वाले (कै: ) किन पुरुषों के १. १९ और २०वें श्लोक की संस्कृत टीका हस्तलिखित प्रति में छूटी है । मूलप्रति में यह
पद्य नहीं है।