SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८६ : पंचस्तोत्र कर्मारातीनां मोहादिघात्तिकर्मशत्रूणां जालं संघातो येन स तथोक्तः । पुन: किंविशिष्टः ? विनमदित्यादि विशेषेण नमन्त्यः प्रतीभवन्त्योमरकान्ता देवांगनास्तासां कुन्तला: केशास्तैराक्रान्ता आश्रितास्ते च कान्तिस्फुरिता धुतिद्योतितास्ते च ते नखमयूखा नखकिरणाश्च तैोतितानि आशान्तराणि दिगन्तराणि याभ्या ते तथोक्ते तथाभूते दिविजमनुजराजव्रातपूज्ये सुरेन्द्रनरेन्द्रवृन्दाभ्यच्य क्रमाब्जे चरणकमले यस्य ।।१८।। अन्वयार्थ-(विनमदमरकांताकुन्तलाक्रान्तकांतिस्फुरितनखमयूखद्योतिताशान्तरालः ) नमस्कार करती हुई देवांगनाओंके केशोंसे प्रतिबिम्बित कांतिसे शोभायमान नखचन्द्रकी किरणोंसे प्रकाशित कर दिया है दिशाओं का मध्यभाग जिनने ऐसे , तथा (दिविजमनुजराजव्रातपूज्यक्रमाब्जः) देव और मनुष्यों के राजसमूह से पूजने योग्य हैं चरणकमल जिनके ऐसे, और (विजितकारातिजाल:) जीत लिया है कर्मरूपी शत्रुओं का समूह जिनने ऐसे ( जिनेन्द्रः ) जिनेन्द्रदेव ( जयति ) जयवन्त हैंसर्वोत्कृष्ट रूप से वर्तमान हैं। भावार्थ-जिनके चरणों के नखों की कांति से दशों दिशाएँ प्रकाशमान हैं, जिनके चरणों की देवेन्द्र और नरेन्द्र पूजा करते हैं तथा जिन्होंने कर्मों का क्षय कर दिया है, ऐसे जिनेन्द्रदेव ही सबसे उत्कृष्ट हैं ।।१८।। वसन्ततिलका छन्द सुप्तोस्थितेन सुमुखेन सुमङ्गलाय द्रष्टव्यमस्ति यदि मङ्गलमेव वस्तु । अन्येन किं तदिह नाथ तवैव वक्त्रं त्रैलोक्यमङ्गलनिकेतनमीक्षणीयम् ।।१९।। स्वामिन् ! सोकर उठे पुरुष को यदि शुभ मङ्गलके प्राप्त्यर्थ । मङ्गल वस्तु देखनी हो तो अन्य वस्तुएँ सब हैं व्यर्थ ।। त्रिभुवन के हर मंगलके गृहरूष आपका वदन-मयङ्क । मात्र देख ले तो हर मंगल प्राप्त उसे होगा नि:शङ्क ।। १९ ।।
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy