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________________ जिनचतुर्विंशतिका स्तोत्र : ९८५ स्तेषां श्रीः सैव सुधानिर्झरिणो अमृतनदी गङ्गा तस्याः । तत्प्रभवहेतुत्वात् पुनः किंविशिष्टः प्रविपुलेला महान्ति कलानि यस्य स प्रविपुलफलः स चासौ धर्मानोकहः पुण्यवृक्षश्च तस्याग्रं शिखरं तत्र प्रवालसर : किसलयविस्तारः प्रेक्षमाणभव्यजनानामत्यन्तचित्तप्रसादहेतुतया सद्यः सुखजनकत्वात् स इव शिखरे अग्रे शुम्भन्ति शोभमानानि केतनानि ध्वजा यस्य स तथोक्तः || १७॥ अन्वयार्थ - (सुरनरेन्द्र श्रीसुधानिर्झरिण्याः ) देवेन्द्र और राजाओं की लक्ष्मी रूप अमृत के झरनों की उत्पत्ति के लिये ( कुल - धरणिधर : ) कुलाचल, तथा ( प्रविपुलफलधर्मानो कहाग्रप्रवालप्रसरशिखरशुम्भत्केतन: ) अत्यधिक फल वाले धर्मरूप वृक्षके अग्रभाग पर स्थित किसलयसमूह की शिखर ही है शोभायमान पताका जिस पर ऐसा तथा ( श्रीनिकेत ) लक्ष्मी के गृहस्वरूप (अयम् ) यह ( जैनचैत्याभिरामः ) जिनेन्द्रदेव का चैत्यालय ( जयति ) जयवन्त है - सबसे उत्कृष्ट है । भावार्थ – हे भगवन् ! आपका वह मन्दिर संसार में सबसे उत्कृष्ट है, जिसमें भक्तिपूर्वक जाने से देवेन्द्र तथा राजामहाराजाओं को सम्पत्ति प्राप्त होती है, जिस पर मनोहर पताका फहरा रही है और जो लक्ष्मी का घर है ||१७| विनमदमरकान्ताकुन्तलाक्रान्तकान्तिस्फुरितन खमयूखद्योतिताशान्तरालः दिविजमनुजराजव्रातपूज्यक्रमाब्जो ! - जयति विजितकर्मारातिजालो जिनेन्द्रः ।। १८ ।। जिनके नख- शशिमें प्रतिबिम्बित होते विनत सुरीके केश । जिनके चरण-कमल की पूजा करते हैं अमरेश नरेश || तथा जिन्होंने कर्म रूप निज अरि की सेना ली है जीत । वे जिनेन्द्र की तीनों लोकों में सर्वोत्तम और पुनीत ।। १८ । टीका - जयति कोऽसौ ? जिनेन्द्रः किंविशिष्टः ? विजितं निरस्तं
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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