________________
जिनचतुर्विंशत्तिका स्तोत्र : १८३ कुमुद समूह के लिए चन्द्रमा स्वरूप (जिनस्य) जिनेन्द्रदेव के (चैत्यालयं त्रिः परीत्यः) मन्दिर की तीन प्रदक्षिणा देकर ( उत्तंसीभूतसेवांजलिपुटनलिनीकुड्मलः) आभरण रूप किया है सेवा से वह अंजलिपुटरूपकमलिनी के मुकुल ( वौंडीकली ) जिसने ऐसा तथा ( श्रीपादच्छायो आपके गीचरण जी हागा . . . के द्वारा ( अपच्छिदभवदवथुः) दूर हो गया है संसार का सन्ताप जिसका ऐसा मैं (मुक्तिम् इव संश्रितः अस्मि) मानो मुक्ति को ही प्राप्त हो गया हूँ ।।१५।।
भावार्थ-हे भगवन् ! आपके मन्दिर की तीन परिक्रमा देकर जब आपके चरणों के समीप हाथ जोड़कर बैठता हूँ, तब मुझे जो आनन्द होता है उसमें मैं समझने लगता हूँ कि मैं अब मुक्ति को ही प्राप्त हो गया हूँ ।।१५।।
असन्ततिलका छन्द देव त्वदध्रिनखमण्डलदर्पणऽस्मि
न्नध्ये निसर्गरुचिरे चिरदृष्टवक्त्रः । श्रीकीर्तिकान्तिधृतिसङ्गमकारनि
भव्यो न कानि लभते शुभमङ्गलानि ।।१६।। प्रभो ! पूज्य औ' स्वतः रुचिर तव नख दर्पण में बारम्बार । स्वमुख देखकर भव्य जीव श्री-कीर्ति-कान्तिधृति के आगार ।। किन शुभ मङ्गलमयी प्रसंगों को न प्राप्त होता स्वयमेव । कहने का सारांश कि वह सब शुभ मंगल पाता है देव ।। १६ ।। ____टीका-हे देव ! भव्यो रत्नत्रयाविर्भावयोग्यो जीवः कानि शुभ-- मङ्गलानि न लभते सर्वाण्यपि लभते एव । मङ्गं पुण्यं सुखं वा लान्तीतिम पापं घा गालयन्तीति मङ्गलानि सम्यग्दर्शज्ञानचारित्राणीत्यर्थः । शुभानि प्रशस्तानि त्रिजगत्युपकारकत्वात् । यदि वा शुभमङ्गलानि गर्भावतारणादिकल्याणानि किंकिंविशिष्टानि श्रीलक्ष्मीः कीर्तिर्यश: कान्तिलावण्यं धृतिः संतोषस्तासां संगम: संप्राप्तिस्तस्य कारणानि किंविशिष्टः सन् भव्यश्चिरं