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________________ जिनचतुर्विशतिका स्तोत्र : १८१ त्रिभुवनवनपुष्पात्पुष्यकोदण्डदर्प प्रसरदवनवाम्भोमुक्तिसूक्तिप्रसूतिः । स जयति जिनराजवातजीमूतसङ्घः बप्प शतमखशिखिनृत्यारम्भनिर्बन्धबन्धुः ।।१४।। त्रिभुवन वन में व्याप्त मदन के, मदके दावानल को ताप । निज उपदेशामृत की वर्षा से, शीतल कर देते आप !! तथा सुराधिपरूप शिखि के, नर्तन में भी निःस्सन्देह । सबसे श्रेष्ठ आप हो, आग्रहकारी बन्धु स्वरूपो मेह ।। १४ !! टीका-जयति कोऽसौ ? स प्रसिद्धः जिनानां गणधरदेवादीनां राजानोऽधिपतयो जिनेन्द्रास्तेषां व्रातः संघातः सोऽयं जीमूतानां मेघानां संघः । जीमूतसंघ इव जीमूतसंघः उपमानोपमा। सोऽयं किंविशिष्टः त्रिभुवनमेव वनं तत्र पुष्पवर्द्धमानः पुष्पकोदण्डस्य कामस्य दर्पप्रसरो मद्रोद्रेकः स एव दवो दवाग्निस्तत्र नवाम्भोमुक्तिः नूतनजलवृष्टिः । सूक्तीनां दृष्टेष्टाविरुद्धवाचां प्रसूतिः प्रादुर्भावो यस्मात् पुनः किंविशिष्टः ? शतमख इन्द्रः स एवं शिखी मयूरस्तस्य नृत्यारम्भो नटनोपक्रमस्तस्य निर्बन्ध आग्रहस्तत्र बन्धुः सहायः ।।१४।। अन्वयार्थ-(त्रिभुवनवनपुष्यात्पुष्पकोदण्डदर्पप्रसरदवनवाम्भोमुक्तिसूक्तिप्रसूतिः) तीन लोकरूपी वन में बढ़ते हुए कामदेव सम्बन्धी अहंकार के प्रसाररूपी दावानल को बुझाने के लिये नूतन जलवृष्टि रूप सुन्दर उपदेश की है उत्पत्ति जिससे ऐसे तथा (शतमखशिखिनृत्यारम्भनिर्बन्धबन्धुः) इन्द्ररूपी मयूर के नृत्य प्रारम्भ करने में आग्रहकारी बन्धुस्वरूप ( सः) वह (जिनराजनातजीमूतसङ्घः ) जिनेन्द्र समूहरूप मेघों का समुदाय (जयति ) जयवन्त है अर्थात् सबसे उत्कृष्ट है। भावार्थ-जिनका उपदेश काम अग्नि को नष्ट करने के लिए जल-धारा के समान है और जिनके सामने स्वर्ग का इन्द्र मनोहर नृत्य करता है वे जिनेन्द्रदेव संसार में सबसे श्रेष्ठ हैं ।।१४।।
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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