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१८० : पंचस्तोत्र
मालिनी छन्द किसलयितमनल्पं त्वद्विलोकाभिलाषात्
कुसुमितमतिसान्द्रं त्वत्समीपप्रयाणात् । मम फलितमन्दं त्वन्मुखेन्दोरिदानी
नयनपथमवाप्ताद् देव ! पुण्यद्रुमेण ।।१३।। तव दर्शन की इच्छा से ही, मेरे पुण्य-विटप में आप्त । पल्लव निकले, निकट-गमन से, हुई सघन सुमनावलि व्याप्त ।। और आपके मुख-शशि दर्शन से, इस समय लगे फल ईश। अत: आपका पावन दर्शन, पुण्य हेतु है हे योगीश ।। १३ । । __टीका-हे देव ! मम सम्बन्धिना पुण्यद्रुमेण सुकृतवृक्षण किसलयितं सपल्लवेन जातं कथं? अनल्पं बहु । कस्मात ? त्वद्विलोकाभिलाषात् तव दर्शनवाञ्छातः । तथा कुसुमितं सपुष्पेण जातम् अतिसान्द्रं अतिघनं कस्मात् त्वत्समीपप्रणायात् तव निकटदेशगमनात् तथा फलितं सालेन जातम् । अमन्दं प्रचुरं यथाभवति । कस्मात् त्वन्मुखेन्दोस्त्वन्मुखचन्द्रात् इदानी सम्प्रति नयनपथं नेत्रमार्गमवाप्तात् प्राप्तात् दृष्टादित्यर्थः ।।१३।। ___ अन्वयार्थ (देव) हे देव ! (मम) मेरा (पुण्यद्रुमेण) पुण्यरूपी वृक्ष, (त्वद्विलोकाभिलाषात्) आपके दर्शन करने की इच्छा से (अनल्पम् ) अत्यधिक (किसलयितम् ) पल्लवों से व्याप्त हुआ था, ( त्वत्समीपप्रयाणात्) आपके पास जाने से (अतिसान्द्रम्) अतिसघन (कुसुमितम्) फूलों से व्याप्त हुआ
और ( इदानीम् ) इस समय (त्वन्मुखेन्दोः) आपके मुख-चन्द्रमा से ( अमन्दम्) अत्यन्त ( फलितम् ) फलों से व्याप्त हुआ है ।।
भावार्थ-हे भगवन् ! आपके दर्शन करने की इच्छा से पुण्यरूपी वृक्ष लहलहा उठता है । आपके पास जाने से उसमें फूल लग जाते हैं और आपका साक्षात् दर्शन पा लेने पर उसमें फल लग जाते हैं। आपका दर्शन अत्यन्त पुण्य का कारण है ।।१३।।