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________________ जिनचतुर्विंशतिका स्तोत्र : १७१ अपि समुच्चये । क्व कृता अन्तर्मध्ये कस्य स्वस्यात्मनः सम्बन्धी यो बोधो ज्ञानं स एव मुकुर आदर्शस्तस्य अन्यः पुनः कियदेवं ज्ञेयं जानातीति चित्रम् ॥५॥ अन्ययार्थ - ( जिनवर ) हे जिनेन्द्र (शासनकारिनाकपति ) आज्ञाकारी है इन्द्र जिसमें ऐसा राज्य (यत्) जो ( त्वया ) आपके द्वारा (तृणावज्ञाया ) तृण जैसी अनादर बुद्धि से (त्यक्तम् ) छोड़ दिया गया है, (हेलानिर्दलितत्रिलोकमहिमा) अनायास ही खण्डित कर दी हैं तीन लोक के जीवों की महिमा जिसने ऐसा (मोहमल्लः ) मोहरूपी मल्ल (यत्) जो ( जितः ) जीता गया है तथा (यत्) जो ( लोकालोकम् अपि ) लोक, अलोक का समाहार-समूह भी ( स्वबोधमुकुरस्य अन्तः कृतम् ) अपने ज्ञानरूप दर्पण के भीतर किया गया है, सो ऐस आश्चर्यपरम्परा ) यह प्रसिद्ध आश्चर्य परिपाटी ( अन्यत्र क्ख ) आपको छोड़कर दूसरी जगह कहाँ (सम्भाव्यते ) सम्भव हो सकती है । भावार्थ - हे भगवन् ! आपने विशाल राज्य को तृण के समान तुच्छ समझकर छोड़ दिया, आपने त्रिलोक विजयी मोहमल्ल को जीत लिया और अपने लोक, अलोक का ज्ञान प्राप्त कर लिया। यह विशेषता आपको छोड़कर अन्य मत सम्बन्धी देवों में नहीं हो सकती ||५|| दानं ज्ञानधनाय दत्तमसकृत्पात्राय सद्वृत्तये चीर्णान्युग्रतपांसि तेन सुचिरं पूजाश्च बह्व्यः कृताः । शीलानां निचय: सहामलगुणैः सर्वः समासादितो दृष्टस्त्वं निज येन दृष्टिसुभगः श्रद्धापरेण क्षणम् ||६| जिनवर ! जिस श्रद्धालु जीव ने किया आपका पावन दर्श । उसने ज्ञानी व्रती पात्र के लिये दान दे लिया सहर्ष ॥ · कठिन तपस्या संचय कर ली, की पूँजाएँ भी अवदात । एवं निर्मल गुणों सहित हो पाये शीलव्रत भी सात ॥ ६ ॥
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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