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________________ जिनचतुर्विंशतिका स्तोत्र : १६९ निःशेषत्रिदशेन्द्रशेखरशिखारत्नप्रदीपावलीसान्द्रीभूतमृगेन्द्रविष्टरतटीमाणिक्यदीपावलिः क्वेयं श्री क्व च निःस्पृहत्वमिदमित्यूहातिगस्त्वादृश: सर्वातद्दृशश्चरित्रभहिमा इन्द्र- किरीटोंके रत्नोंकी, दीपावलिसे सघन महान । सिंहासन के मणिमय दीपोंका, यह विभव कहाँ श्रीमान् ? और आपकी यह निस्पृहता, कहाँ ? अतः हे त्रिभुवन ईश ! आप सदृशका चरित तर्कका, विषत नहीं है हे जगदीश ॥ ४ ॥ लोकेश लोकोत्तरः ||४|| टीका - हे लोकेश जगन्नाथ, वर्त्तते कोऽसौ ? चरित्रमहिमा चारित्रमाहात्म्यं । कस्य । त्वादृशो भवादृशस्य । कथंभूतस्य सर्वज्ञानदृशः । केवलज्ञानलोचनस्य । कथंभूतो वर्तते । लोकोत्तरः । जगदतिशायी । किंविशिष्टः सन् ऊहातिनः वितर्कातिक्रान्तः । कथमूहः । इति किमिति । क्व वर्त्तते कासो ? इयमष्टप्रातिहार्यादिलक्षणा श्रीलक्ष्मीः कीदृशी नि:शेषां सर्वे त्रिदशेन्द्रा देवेन्द्रास्तेषां शेखराणि मुकुटानि तेषां शिखा अग्राणि तेषु माणिक्यप्रदीपावली मणिदीप श्रेणितस्तया सान्द्रीभूता घनीभूता मृगेन्द्रविष्टरस्य सिंहासनस्य तटीषु पार्श्वदेशेषु स्थिता रत्नप्रदी-पावलिर्यस्यां कृन्मोरिति बसे कप्सांतः प्रदीपावलीति पाठे प्रसज्येत । सेयं श्रीः क्व वर्तते क्व चेदं निःस्पृहत्वं समस्तदेवाधिपत्येऽपि तां श्रियं प्रति सर्वथा निरीहत्वं सुष्टु दुर्घटमिदम् । यदेवम्भूते बलवत्यपि रागकारणे मनागपि रागो नोत्पद्यते । अत्र विषमो नामालंकार ||४|| अन्वयार्थ ---- ( निःशेषत्रिदशेन्द्रशेखरशिखारत्नप्रदीपावलीसान्द्रीभूतमृगेन्द्रविष्टरतटीमाणिक्यदीपावलिः) समस्त इन्द्रों के मुकुटों के अग्र भाग पर लगे हुए रत्नरूप दीपकों की पंक्ति से सघन है सिंहासन के तट पर लगे हुए मणिमय दीपकों की पंक्ति जिसमें ऐसी ( इयम् श्रीः ) यह लक्ष्मी (क्व ) कहाँ ? (च ) और (इदम्) यह ( निःस्पृहत्वम् ) निःस्पृहता - इच्छा का अभाव (क्व) कहाँ ? (इति) इस प्रकार ( लोकेश ) हे त्रिभुवन के
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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