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________________ १६८ : पंचस्तोत्र टीकाहे स्वामिन् प्रभो ! अद्य इदानी विनिर्गतो विशेषण निष्कान्तोऽस्मि भवाम्यहं जनन्या मातुर्गर्भ एवान्धकूपो मोहान्धकाराशुचिकृम्यादि व्याप्तत्वात् तस्यादरं मध्यप्रदेशस्तस्मात् । अद्य सम्प्रति उद्घाटिते उन्मीलिते निरावरणिते वा दृष्टी लोचने यस्य स तथास्मि फलवत् सफलं चरितार्थ जन्म उद्भवो यस्य सोऽस्मि । च समुच्चये । अद्य अधुना स्फुटं निश्चितम् । कुतः एतदित्याह । यद्य स्मात् । त्वा भवन्तम् अद्राक्षं दृष्टवानहम् । अक्षयपदानन्दाय मोक्षसुखार्थ लोकानां जगतां त्रयी त्रितयी । तस्या नेत्राण्येव इन्द्रीवरकाननं नीलोत्पलवनं तत्र इन्दु चन्द्रं विकासहेतुस्वात्। अमृतं स्यन्दते स्त्रवत्यभीक्ष्णमित्यमृतस्यन्दिनी प्रभा चन्द्रिका देहधुतियोत्स्ना यस्य तम् । अन्वयार्थ ( स्वामिन् ) हे नाथ ! ( यत् ) जिस कारण से ( अहम् ) मैंने ( लोकत्रयीनेनेन्दीवरकाननेन्दुम् ) त्रिभुवन के जीवों के नेत्र रूपी कुमुद-वनको विकसित करने के लिये चन्दमा रूप तथा ( अमृतस्यन्दिप्रभाचन्द्रिकम् ) जिनकी कान्ति रूपी चाँदनी अमृत को प्रवाहित करती है ऐसे ( त्वाम् ) आपको ( अक्षयपदानन्दाय ) अविनाशी पदके आनन्द के लिये ( अद्राक्षम् ) देखा–अर्थात् आपके दर्शन किये, ( तत् ) ( जननीगर्भान्धकूपोदरात् ) माता के गर्भ रूप अंधेरे कुएँ से ( विनिर्गतः अस्मि ) निकला हूँ, ( अद्य उद्भाटितदृष्टिः अस्मि ) आज प्रकट हुई दृष्टि जिसको ऐसा हुआ हूँ ( च ) और ( अद्य फलवज्जन्मा अस्मि ) आज सफल जन्म हुआ है। भावार्थ-हे भगवन् ! आज आपके दर्शन कर मैं समझता हूँ कि आज ही पैदा हुआ हूँ। क्योंकि मेरा अब तक का समय आपके दर्शन के बिना व्यर्थ ही गया । आज ही मेरी दृष्टि खुली है, आज के पहले मानों मैं देखते हुए भी अनधा था ओर आज ही मेरा जन्म सफल हुआ है ।।३।।
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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