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जिनचतुर्विशतिका स्तोत्र : १६:: निश्चला भवति स छायातरुरिति लोके प्रसिद्धः स तथा भूतो जिनः आमन्त्रयते । भवन्तं त्वां श्रयन्ते अर्थान्तराळ्यावृत्त्य समन्तात्सेवन्ते ।।२।।
अन्वयार्थ--(देव) हे देव ! (तव) आपका ( वपुः) शरीर (शान्तम् ) शान्त है, ( वचः ) बचन ( श्रवणहारि ) कानों को प्रिय है और (चरित्रम्) चारित्र (सर्वोपकारि) सबका भला करने वाला है, (ततः) इसलिये ( संसारमारवमहास्थलरुन्द्रसान्द्रच्छायामहीरुह ) हे संसार रूप मरुस्थल में विस्तृत सघन छायावृक्ष ! ( श्रुतज्ञाः) शास्त्रोंके जानने वाले विद्वान ( भवन्तम् उपाश्रयन्ते) आपका आश्रय करते हैं।
भावार्थ-मरुस्थल प्रदेशों में छाया वाले वृक्ष बहुत कम होते हैं, इसलिये मार्ग में रास्तागीरों को बहुत तकलीफ होती है। वे थके हुए रास्तागीर जब किसी छायादार वृक्ष को पाते हैं, तब बड़े खुश होते हैं और उसकी सघन शीतल छाया में बैठकर अपना सब परिश्रम भूल जाते हैं । इसी तरह संसाररूप मरुस्थल में आप जैसे छायादार वृक्षों की बहुत कमी है, इसलिये मोक्ष-नगर को जाने वाले पथिक रास्ता में बहुत तकलीफ उठाते हैं। पर जब उन्हें आप जैसे छायादार वृक्ष की प्राप्ति हो जाती है तब वे बहुत खुश होते हैं और आपके आश्रय में बैठकर अपने सब दुःख भूल जाते हैं ।।२।।
__ शर्दूलवि-क्रीडति छन्द स्वामिन्नद्य विनिर्गतोऽस्मि जननीगन्धिकूपोदरादद्योद्घाटित्दृष्टिरस्मि फलवज्जन्मास्मि चाद्य स्फुटम् । त्वामद्राक्षमहं यदक्षयपदानन्दाय लोकत्रयीनेत्रेन्दीवरकाननेन्दुममृतस्यन्दिप्रभाचन्द्रिकम् ।।३।1 नाथ ! आप हैं त्रिजग नयनके, कुमुद विपिन हित चन्द्र अनूप । सुधा प्रवाहित करती है तव शुभ्र चन्द्रिका कान्ति स्वरूप ।। अत: आपका दर्शन कर मैं, आज मर्भ से हुआ प्रसूत । आज दृष्टि हो गयी प्रकट औ, आज हुआ है जीवित पूत ।। ३ ।।