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________________ १६६ : पंचस्तोत्र स्थान (वाग्देवीरतिकेतनम् ) सरस्वती का क्रीड़ा-मन्दिर ( महत् जयरमाक्रीडानिधानम् ) विजयलक्ष्मी का विशाल क्रीड़ास्थान और (सर्वमहोत्सवैक भवनम् ) सब बड़े-बड़े उत्सवों का मुख्य घर ( स्यात् ) होता है। भावार्थ-जो मनुष्य प्रतिदिन प्रात:काल के समय जिनेन्द्र भगवान् के दर्शन करता है, वह बहुत ही शक्तिशाली होता है, पृथ्वी उसके वश में रहती है, उसकी कीर्ति सब ओर फैल जाती हैं, वह हमेशा प्रसन्न रहता है, उसे अनेक विद्याएँ प्राप्त हो जाती हैं, युद्ध में उसकी विजय होती है, अधिक क्या कहें, उसे सब उत्सव प्राप्त हो जाते हैं ।।१।। . वसन्ततिलका छन्द शान्तं वपु श्रवणहारि वचश्चरित्रं . सर्वोपकारि तव देव ततः श्रुतज्ञाः । ........... संसारमारवमहास्थलरुन्द्रसान्द्र- ; . च्छायामहीरुह ' . भवन्तमुपाश्रयन्ते ।।२।। देव ! आपका तन प्रशान्त है. वचन कर्ण प्रिय औ आचार । अनायास ही करता रहता, सभी प्राणियों का उपकार ।। अत: आप ही जग-मरुस्थल के सघन वृक्ष हैं छायादार । यही हेतु जो विज्ञ आपका आश्रय लेते बारम्बार ।।२॥ . ___टीका-शान्तं निर्विकारं सौम्यमित्यर्थः वपुः शरीरं तवास्तीति संबन्धः । श्रवणहारि श्रोत्रप्रियं वचो वाक्यं तवास्ति । चरित्रं चरणं विहरणक्रिया सामायिकादि चारित्रं वा सर्वेषां प्राणिनामुपकारि उपकारकम् । भगवति हि विरहति सुभिक्षारोग्यादिना सर्वे जन्तवः स्वस्था: भवन्ति । प्राण्युपघातश्च न स्यात्तथा तदुपदिष्टधर्मानुष्ठानात्रिराबाधा भवन्ति । यतः एवं । हे देव इन्द्रादिभिर्दीव्यते स्तूयते इति देवः । ततस्तस्माद्वपुःशान्तत्वादिति हेतोः । श्रुतज्ञा आगमविदः । संसार एव मारवं मरुदेशप्रभवं महास्थलं प्राणिनां सन्तसंतापहेतुत्वात्तत्र रुन्द्रो महान् सान्द्रो धनः छाययोपलक्षितो महीरुद्रो वृक्ष; 1 यस्य सूर्ये चलत्यपि यस्य छाया
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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