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चतुर्विंशतिकास्तोत्र के रचयिता
भूपाल कवि
जम्बुद्वीप के आर्यखंड में भारतवर्ष में वाराणसी नामक प्रसिद्ध नगरी है । यह पावन भूमि श्री १००८ तीर्थंकर सुपाश्वनाथ-पार्श्वनाथ की पावन जन्मभूमि हैं । इस नगरी में हेम्बान नाम का प्रसिद्ध जैनधर्मानुयायी उदारचरित राजा था ! राजा के सूर्य-चन्द की तरह दो प्यारे पुत्र थे । बड़े का नाम भूपाल और छोटे का भुजपाल था 1
बालक जब पढ़ने योग्य हुए तब राजा ने श्रुतधर पंडित को बुलाया और धनमान से विभूषित करके दोनों बालक विद्याध्ययन के लिये माप दिये । दोनों को गुरु ने समदृष्टि से पढ़ाया परन्तु कर्मोदय की विचित्रता विचित्र है । बड़े पुत्र भूपाल को बिल्कुल भी ज्ञान नहीं हो पाया जबकि लघुपुत्र भुजपाल पिंगल, व्याकरण, तर्क, न्याय, राज्यनीति, सामुद्रिक. ज्योतिष, वैद्यक, शब्दशास्त्र आदि सभी विद्याओं में प्रवीण हो गया ।
ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार भूपाल को बहुत परिश्रम के साथ पढ़ाते रहे । वह भी स्वयं परिश्रम करता रहा, परन्तु मूर्ख ही रहा । मूर्ख भूपालकुमार जहाँ भी जाता, अनादर-तिरस्कार को प्राप्त होता । मन ही मन दुःखी रहता । राजदरबार, परिवार सब जगह उसकी हँसी होती थी । सब लोग उसका उपहास करने लगे। हेमवान राजा का प्यार भो शिक्षित पुत्र भुजपाल पर जितना अधिक था, भूपाल कुमार का बे उतना ही उपहास करते थे।
जगह-जगह अपमान, तिरस्कार से पीड़ित, निरुपाय. दु:खी. भृखं. अपनी अशिक्षित दशा से खेदखिन्न हो छोटे भाई सं ज्ञानवृद्धि का उपाय पूछते हैं । लघु भ्राता भुजपाल कहते हैं— भैया ! श्री भक्तामर जी स्तोत्र का ६वाँ काव्य ऋद्धि-मंत्र सहित सीखकर आराधना कीजिये !
श्रद्धालु राजकुमार भूपाल ने गंगा नदी के किनारे जाकर शुद्धता