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________________ १६० : पंचस्तोत्र तहाँ पुनि तुम ही भये सहाय, आनन्द से घर पहुँचे जाय । सभा दुःशासन पकड़ो धीर, द्रुपदी प्रण राखो कर धीर ।।२५।। सीता लक्ष्मण दीनो साज, रावण जीत विभीषण राज । सेठ सुदर्शन साहस दियो, शूली से सिंहासन कियो ।।२६।। वारिषेण नृप धरिहो ध्यान, ततक्षण उपज्यो केवलज्ञान । सिंह सादिक जीव अनेक, जिन सुमिरे तिन राखी टेक ।।२७!! ऐसी कीरति जिनकी कहूँ, साह कहै शरणागत रहूँ। इस अवसर जीवे यह बाल, मुझ सन्देह मिटे तत्काल ।।२८।। बन्दी छोड़ विरद महाराज, अपना विरद निबाहो आज । और आलंबन मेरे नाहि, मैं निश्चय कीनो मन माँहि ।।२९॥ चरण कमल छोड़ो ना सेव, मेरे तो तुम सतगुरु देव । तुम ही सूरज तुम ही चन्द, मिथ्या मोह निकंदन कंद ३०11 धर्मचक्र तुम धारण धीर, विषहर चक्र विडारन वीर । चोर अग्नि जल भूत पिशाच, जल जङ्घम अटवो उदवास ।।३१।। दर दुश्मन राजा वश होय, तुम प्रसाद गजें नहिं कोय । हय गज युद्ध सबल सामंत, सिंह शार्दूल महा भयवंत ।।३२।। दृढ़ बंधन विग्रह विकराल, तुम सुमरत छूटें तत्काल । पायन पनहीं नमक न नाज, ताको तुम दाता गजराज ।।३३।। एक उथाप थप्यो पुन राज, तुम प्रभु बड़े गरीबनिवाज । पानी से पैदा सब करो. भरी डाल तुम रीती करो ||३४।। ह" कर्ता तुम किरपाल, कीड़ी कुञ्जर करत निहाल । तुम अनन्त अल्प मो ज्ञान. कह लग प्रभुजी करों बखान ||३५।। आगम पन्थ न सूझे मोहि, तुम्हरे चरण बिना किम होहि । भये प्रसन्न तुम साहस कियो, दयावन्त तब दर्शन दियो ।।३६।। साह पुत्र जब चेत भयो, हँसत हँसत वह घर तब गयो । धन दर्शन पायो भगवन्त, आज अङ्ग मुख नयन लसन्त ।।३७11
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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