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विषापहारस्तोत्रम् : १५१ तुमहिं नाम औषधि अनुकूल, महा मंत्र सर जीवन मूल । मूरख मर्म न जाने भेव, कर्म कलङ्क दहन तुम देव ।।१२।। तुम ही नाम गारुड़ गह गहै, काल भुजङ्गम् कैसे रहे । तुम ही धनन्तर हो जिनराय, मरण न पावेको तुम ठाय ।।१३।। तुम सूरज उदकाघट जास, संशय शीत न व्यापे तास । जीवे दादुर वाई तोय, हुन यानी अजोकर हेय १ ।। तुम बिन कौन करै मुझ पार, तुम कर्ता हर्ता किरपाल । शरण आयो तुम्हरी जिनराज, अब्रमो काज सुधारो आज ।।१५।। मेरे यह धन पूंजी पूत, साह कह घर राखो सूत । करौं वीनती बारंबार, तुम बिन कर्म करै को क्षार ।।१६।। विग्रह ग्रह दुःख विपति वियोग, और जु घोर जलंधर रोग । चरण कमल रज टुक तन लाय, कुष्ट व्याधि दीरघ मिट जाय ।।१७।। मैं अनाथ तुम त्रिभुवन नाथ, मात पिता तुम सज्जन साथ । तुम सा दाता कोई न आन, और कहाँ जाऊँ भगवान ॥१८।। प्रभुजी पतित उधारन आह, बाँह गहे को लाज निबाह । जहाँ देखो तहाँ तुम ही आय, घट घट ज्योति रही ठहराय ।।१९।। बाट सुघाट विषम भय जहाँ, तुम बिन कौन सहाई तहाँ । विकट व्याधि व्यंतर जल दाह, नाम लेत क्षण मॉहि विलाह ।।२०।। आचार्य मानतुङ्ग अवसान, संकट सुमिरो नाम निधान । भक्तामर की भक्ति सहाय, प्रण राखें प्रगटे तिस ठाय ।।२१।। चुगल एक नृप विग्रह ठयो, वादिराज नृप देखन गयो । एकीभाव कियो निःसन्देह, कुष्ट गयो कञ्चन सम देह ।।२२।। कल्याणमन्दिर कुमुदचन्द्र ठयो, राजा विक्रम विस्मय भयो । सेवक जान तुम करी सहाय, पारसनाथ प्रगटै तिस ठाय ।।२३।। गई व्याधि विमल मति लही, तहाँ फुनि सनिधि तुमही कही । भवसुदत्त श्रीपाल नरेश, सागर जल संकट सुविशेष ।।२४।।