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विषापहारस्तोत्रम् १५७
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विद्वान् पुरुष अपने आश्रित रहनेवाले शिष्य क्की इच्छाओं को पूर्ण ही करते हैं ।। ३९ ।।
पुष्पिताग्रा छन्द
वितरति विहिता यथाकथञ्चिज्जिन, विनताय मनीषितानी भक्तिः । त्वयि नुतिविषया पुनर्विशेषाद्दिशति, सुखा नियशो धनञ्जय च ।। यथाशक्ति थोड़ी सी भी. की हुई भक्ति श्री जिनवर की। भक्तजनों को मनचाही सामग्री देती जगभर की || इससे गूँथी हे स्तवन में, यह विशेषता से रुचिकर । 'प्रेमी' देगी सौख्य सुयश को, तथा 'धनंजय' को शुचितर ॥ ४० ॥f
टीका - भो जिन : यथा कथचित् । विहिता निर्मिता । भक्तिविनताय नम्रीभूताय । मनीषितानि मनोऽभिलषितानि । वितरति ददाति 1 पुनस्त्वयि विषये नुतिविषया स्तुविषयिणी भक्तिस्त्वद्गोचरीभूता या भक्तिः । विशेषात् सुखानि च पुनर्यशश्च पुनर्धनं च पुनर्जयं च दिशति ददाति ॥ ४० ॥
अन्वयार्थ - ( जिन ) हे जिनेन्द्र ! ( यथाकथञ्चित् ) जिस किसी तरह (विहिता) की गई ( भक्तिः ) भक्ति ( विनताय ) नम्र मनुष्य के लिये (मनीषितानि ) इच्छित वस्तुएँ ( वितरित) देती हैं, (पुनः) फिर ( त्वयि ) आपके विषय में की गई (नुतिविषया) स्तुतिविषयक भक्ति (विशेषात् ) विशेषरूप से ( सुखानि ) सुख, ( यश:) कीर्ति, ( धनम् ) धन-सम्पत्ति (च) और ( जयम् ) जीत को ( दिशति ) देती है ।
भावार्थ - हे भगवन् ! आप की भक्ति से सुख, यश, धन तथा विजय आदि की प्राप्ति होती है ।। ४० ।।
इति धनञ्जयमहाकविकृतं विषापहारस्तोत्रम् समाप्तम् ।