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१५६ : पंचस्तोत्र स्तुति करनेवाले को तो फल की प्राप्ति स्वयं ही हो जाती है । जैसे जो मनुष्य वृक्ष के नीचे पहुँचेगा, उसे छाया स्वयं प्राप्त हो जाती है । छाया की याचना करने से कोई लाभ नहीं होता ।।३८।।
पुष्पिताग्रा छन्द अथास्ति दित्सा यदि वोपरोधस्त्वय्येव सक्तां दिश भक्तिबुद्धिम् । करिष्यते देव ! तथा कृपां में, कोवात्पपोष्येसमुखो न सूरिः ।।३९।। यदि देने की इच्छा ही हो, या इस का कुछ आग्रह हो। तो निज चरन-कमल-रत निर्मल. बुद्धि दीजिये नाथ अहो ।। अथवा कृपा करोगे ही प्रभु, शंका इसमें जरा नहीं। अपने प्रिय सेवक पर करते, कौन सुधी जन दया नहीं ।। ३९ ।। ___टीका–भो देव ! अथानंतरं । यदि चेत् । दित्सा दातुमिच्छास्ति । वाऽथवा । उपरोधोऽनुग्रहोऽस्ति । तर्हि त्वय्येव सक्तां भक्तिबुद्धि: दिश देहि । भक्तेर्बुद्धिस्तां । भक्तिर्विद्यते यस्याः सा तां । भो देव तथा सा भक्तिबुद्धिः मे मम कृपां करिष्यते विधास्यतीति भाव: । वा अथवा । आत्मनः स्वस्य पोषक: । सूरिः पंडितः । सुमुखो न स्यात् । आत्मपोषणे सर्वोऽपि सूरिः सुमुखो भवति ।।३९।।
अन्वयार्थ (अथ दित्सा अस्ति) यदि आपकी कुछ देने की इच्छा है (यदि वा) अथवा वरदान मांगो ऐसा (उपरोध: 'अस्ति') आग्रह है तो ( त्वयि एवं सक्ताम् ) आपमें लीन ( भक्तिबुद्धिम् ) भक्तिमयी भगवान् को (दिश ) देओ। मेरा विश्वास है कि ( देव ) हे देव ! (मे) मुझ पर ( तथा ) वैसी (कृपाम् करिष्यते ) दया करेंगे (आत्पपोष्ये ) अपने द्वारा पोषण करने के योग्य शिष्य पर ( को वारि सूरिः) कौन पंडित पुरुष (सुमुखो न भवति') अनुकूल नहीं होता ! अर्थात् सभी होते हैं।
भावार्थ-हे नाथ ! यदि आपकी कुछ देने की इच्छा है तो मैं आप से यही चाहता हूँ कि मेरी भक्ति आप में ही रहे । मेरा विश्वास है कि आप मुझपर अपनी कृपा अवश्य करेंगे । क्योंकि