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विघापहारस्तोत्रम् : १५५ हैं । उसी प्रकार आपमें न लाघव ही है और न गुरुत्व हो । दोनों सापेक्ष धर्मों से रहित हैं। आप अगुरुलघुरूप हैं । हे भगवन् ! आप समय की मर्यादा से भी रहित हैं, अर्थात् अनन्तकाल तक ऐसे ही रहे आवेंगे ।।३७।। इति स्तुतिं देव ! विधाय दैन्याद्वरं न याचे त्वमुपेक्षकोऽसि । छायातलं संश्रयत: स्वत: स्यात्कश्छायया याचितयात्मलाभः ।। इस प्रकार गुणकीर्तन करके, दीन भाव से हे भगवान । वर न माँगता हूँ मैं कुछ भी, तुम्हें वीतरागी वर जान ।। वृक्षतले जो जाता है, उस पर छाया होती स्वयमेव । छाँह- याचना करने से फिर, लाभ कौनसा है जिनदेव? ।। ३८ ॥
टीका-भो देव ! इत्यमुना प्रकारेण । स्तुति स्तवनं । विधाय दैन्यात् दीनभावात् । अहं वरं न याचे । त्वमुपेक्षकोऽसि । तरुं वृक्षं संश्रयत: पुरुषस्य । स्वतः स्वभावेन छाया स्यात् । तत्र प्रार्थना न लगति । छायया याचितया क: आत्मनः स्वस्य लाभो भवति न कोऽपीत्यर्थः ।।३८।।
अन्वयार्थ (देव) हे देव ! ( इति स्तुतिम् विधाय) इस प्रकार स्तुति करके मैं (दैन्यात् ) दीन भाव से ( वरम् न याचे) वरदान नहीं माँगता, क्योंकि ( त्वम् उपेक्षकः असि) आप उपेक्षक हैं, राग-द्वेष से रहित हैं अथवा (तरुम् संश्रयत: ) वृक्ष का आश्रय करनेवाले पुरुष को (छाया स्वतः स्यात्) छाया स्वयं प्राप्त हो जाती है । ( याचितया छायया कः आत्मलाभः) छाया की याचना से क्या लाभ है?
भावार्थ हे भगवन् ! मैं सर्प से इसे हुए मृतप्राय लड़के को आपके सामने लाया हूँ, इसलिये स्तुति कर चुकने के बाद मैं आप से यह वरदान नहीं माँगता कि आप मेरे लड़के को स्वस्थ कर दें । क्योंकि मैं जानता हूँ कि आप राग-द्वेष से रहित हैं, इसलिये न किसी को कुछ देते हैं और न किसी से कुछ लेते-छीनते भी हैं ।