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१५४ : पंचस्तोत्र स्वयं प्रकाशमान जिस प्रभु को. रात दिवस नहिं रोक सका । लाघव गौरव भी नहि जिसको, बाधक होकर टोक सका।। एक रूप जो रहे निरन्तर, काल-कला से सदा अतीत । भक्ति भार से झुककर उसकी. करूं वंदना परम पुनीत ।। ३७ ।।
टीका-अहं विभुं व्यापक प्रभुं । वंदे नमस्करोमि । कथंभूतं तं ? कालस्य कला क्षणादिसलयस्तामतीतं रहितं । यस्य स्वयंप्रकाशस्य भगवतः तव दिवा दिवसो वा अथवा रात्रिर्बाध्यता बाधको न । तयोस्तव बाधकत्वमपि न । तब भगवतो लाघवं गौरवमपि न । कीदृशमेकरूपं ? एकमद्वितीयं ज्योतिर्लक्षणं रूपं यस्य स तम् ।।३७ ____ अन्वयार्थ ( स्वयं प्रकाशस्य यस्य) स्वयं प्रकाशमान रहनेवाले जिसके ( दिवा निशा वा) दिन और रात की तरह (न बाध्यता, न बाधकत्वम् ) न बाध्यता है और न बाधकपना भी । इसी प्रकार जिनके ( न लाघवं गौरवम् ) न लाघव हैं न गौरव भी. उन । एकरूपम् ) एकरूप रहनेवाले और ( कालकलाम् अतीतम् ) काल-कला से रहित अर्थात् अन्त रहित ( विभुम् वन्दे) परमेश्वर की वन्दना करता हूँ।
भावार्थ-स्वयं प्रकाशमान पदार्थ के पास जिस प्रकार रात और दिन का व्यवहार नहीं होता; क्योंकि प्रकाश के अभाव को रात कहते हैं, और रात के अभाव को दिन कहते हैं । जो हमेशा प्रकाशमान रहता है, उसके पास अन्धकार न होने से रात का व्यवहार नहीं होता, और जब रात का व्यवहार नहीं है तब उसके अभाव में होने वाला दिन का व्यवहार भी नहीं होता; उसी प्रकार आपमें भी बाध्यता और बाधक का व्यवहार नहीं है; आप किसी को बाधा नहीं पहुँचाते, इसलिये आप बाधकत्व नहीं और कोई आपको भी बाधा नहीं पहुँचा सकता, इसलिये आप बाध्य नहीं हैं । जिसमें बाध्य का व्यवहार नहीं, उसमें बाधक का भी व्यवहार नहीं होता, और जिसमें बाधक का व्यवहार नहीं उसमें बाध्य का व्यवहार नहीं हो सकता, क्योंकि ये दोनों धर्म परस्पर में सापेक्ष