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विषापहारस्तोत्रम् : १५३ मेरु बड़ासा पत्थर पहले, फिर छोटासा शैलस्वरूप ।
और अन्त में हुआ न कुलगिरि, किन्तु सदा से उन्नत रूप । इसी तरह जो वर्धमान है, किन्तु न क्रम से हुआ उदार । सहजोन्नत उस त्रिभुवन-गुरु को, नमस्कार है बारम्बार ।। ३६ ।।
टीका–भो भगवन् ते तुभ्यं नमः । कथंभूताय ते ? त्रैलोकस्याधोमध्योललोकोद्भूतजनस्य दीक्षोपदेशसूत्रगुरुस्तस्मै । यस्त्वं वर्द्धमानोऽपि सन् निजोन्नतः स्वयमेवोन्नतोऽभूत् । मेरु: सुदर्शनः । प्राग् पूर्व । गण्डशैल; सन् पुनरद्रिकल्प: पर्वततुल्योऽभूत । पश्चाद्वर्द्धमानोऽपि कुलपर्वत: [[मूल बभूक : ३६१
अन्वयार्थ—(त्रैलोक्यदीक्षागुरवे ते नमः ) त्रिभुवन के जीवों के दीक्षागुरु स्वरूप आपके लिये नमस्कार हो, ( य:) जो आप (वर्धमानः अपि) क्रम से उन्नति को प्राप्त हुए भी (निजोत्रतः) स्वयमेव उन्नत ( अभूत् ) हुए थे। ( मेरुः) मेरुपर्वत ( प्राक् ) पहले (गण्डशैलः ) गोल पत्थरों का ढेर, (पुन:) फिर (अद्रिकल्पः) पहाड़ और (पश्चात् ) फिर (कुलपर्वतः) कुलाचल (न अभूत् ) नहीं हुआ था किन्तु स्वभाव से ही वैसा था ।
भावार्थ हे प्रभो ! आप तीन लोक के जीवों के दीक्षागुरु हैं, इसलिये आपको नमस्कार हो । इस श्लोक के द्वितीय पाद में विरोधाभास अलंकार है । वह इस तरह कि आप अभी वर्धमान हैं अर्थात् क्रम से बढ़ रहे हैं फिर भी निजोन्नत-अपने आप उन्नत हुए थे । जो चीज बढ़ रही है वह पहिले उससे छोटी ही होती है न कि बड़ी, पर यहाँ विपरीत बात यह है । विरोध का परिहार इस प्रकार है कि आप वर्धमान होकर भी स्वयमेव उन्नत थे, न कि क्रम-क्रम से उन्नत हुए थे । क्योंकि मेरुपर्वत आज जितना उन्नत है, उतना उन्नत हमेशा से ही था, न कि क्रम-क्रम से उन्नत हुआ है । यहाँ वर्धमान पद श्लिष्ट है । १३६।। स्वयंप्रकाशस्य दिवा निशा वा, न बाध्यता यस्य न बाधकत्वम् । न लाधवं गौरवमेकरूपं, वन्दे विभुं कालकलामतीतम् ।।३७।।