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________________ १५२ : पंचस्तोत्र लंघ्य न औरों के मन से भी, और गूढ़ गहरे अतिशय । धनविहीन जो स्वयं किन्तु, जिनका करते धनवान विनय ।। जो इस जग के पार गये पर, पाया जाय न जिनका पार । ऐसे जिनपति के चरणों की, लेता हूँ मैं शरण उदार ।। ३५ ।। टीका-अहं तं जिनानां पतिं गणधरदेवानां स्वामिनं प्रति शरणं व्रजामि यामीत्यर्थः । कथंभूतं तं ? अगाधं गम्भीरमित्यर्थः । पुनः अन्यैर्लोकैः मनसाप्यलंघ्यं लंघितुमशक्यं । पुनः निष्किंचनमसंगं चतुर्विशतिधापरिग्रहरहितत्वात् । पुनः अर्थवद्भिर्लोकैः प्रार्थितं । पदार्थवद्भिधनेश्वररैर्वा याचितं मनोभिलषितदातृत्वात् ! पुनः विश्वस्य त्रैलोकस्य पारं प्राप्तं लटकाकज्ञानविष्ठावात् । अष्टारं पारो यस्य सतं ।। ३५ ।। अन्वयार्थ – ( अगाधम्) गम्भीर ( अन्यैः ) दूसरों के द्वारा ( मनसा अपि अलंघ्यम् ) मन से भी उल्लंघन करने के अयोग्य अर्थात् अचिन्त्य ( निष्किंचनम् ) निर्धन होने पर भी ( अर्थवद्भिः) धनाढ्यों के द्वारा (प्रार्थितम् ) याचित (विश्वस्य पारम् ) सबके पारस्वरूप होने पर भी ( अदृष्टपारम् ) जिनका धार - अन्त कोई देख सका है, ऐसे (तम् जिनानाम् पतिम् ) उन जिनेन्द्रदेव की ( शरणम्) शरण को (व्रजामि ) प्राप्त होता हूँ । भावार्थ - हे भगवन् ! आप बहुत ही गम्भीर, धैर्यवान हैं । आपका कोई मन से भी चिंतवन नहीं कर सकता । यद्यपि आपके पास देने के लिए कुछ भी नहीं है, तो भी धनिक लोग ( अथवा याचकवर्ग ) आपसे याचना करते हैं, आप सबके पार को जानते हैं, पर आपके पार को कोई नहीं जान सकता और आप जगत् के जीवों के प्रतिरक्षक हैं, ऐसा सोचकर मैं भी आपकी शरण में आया हूँ ।। ३५ ।। त्रैलोक्यदीक्षागुरवे नमस्ते, ये वर्धमानोऽपि निजोन्नतोऽभूत् । प्राग्गण्डशैलः पुनरद्रिकल्पः पश्चान्न मेरुः कुलपर्वतोऽभूत् ।। ३६ ।।
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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