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विधापहारस्तोत्रम् : १५१ अशब्दमस्पर्शमरूपगन्धं, त्वां नीरस तद्विषयावबोधम् । सर्वस्य मातारममेयमन्यैर्जिनेन्द्रमस्मार्यमनुस्मरामि ।।३४।। जो नहिं शब्द स्वयं रस सपरस, अथवा रूप गंध कुछ भी । पर इन सब विषयों के ज्ञाता, जिन्हें केवली कहें सभी ।। सब पदार्थ जो जानें, पर न जान सकता कोई जिनको । स्मरण में आ सकते हैं जो, करता हूँ सुमरन उनको ।। ३४ ।।
टीका-त्वा जिनेन्द्रमहमनुस्मरामि नित्यं ध्यायामि । कथंभूतं त्वां ? न विद्यते शब्दो यस्य स तं । न स्पर्शो यस्य स तं । न रूपगन्धौ यस्य स तं । रसान्निष्कान्तो यः स तं । पुनः त एव विषयाः स्पर्शरस-- गंधवर्णशब्दास्तेषां । अवबोधो ज्ञानं यस्य स तं । सर्वस्य त्रैलोक्यस्य दंडाकारेण घनाकारेण माता प्रमापकस्तं । पुनः माया ज्ञानस्य विषयो मेयः न मेयोऽमेयस्तं । कैरन्यैर्लोकैः पुन: स्मारयतीति स्तार्य: न स्मार्य: अस्मार्यस्तं । अस्मारकमित्यर्थः ।।३४।।
अन्वयार्थ (अशब्दम् ) शब्द रहित, ( स्पर्शम् ) स्पर्शरहित ( अरूपगन्धम् ) रूप और गन्ध रहित तथा ( नीरसम्) रस रहित होकर भी ( तद्विषयावबोधम् ) उनके ज्ञान से सहित ( सर्वस्य मातारम् ) सबके जाननेवाले होकर भी ( अन्यैः) दूसरों के द्वारा (अमेयम्) नहीं जानने के योग्य तथा { अस्मार्यम् ) जिनका स्मरण नहीं किया जा सकता ऐसे ( जिनेन्द्रम् अनुस्मरामि ) जिनेन्द्र भगवान् का प्रतिक्षण स्मरण करता हूँ-ध्यान करता हूँ।
भावार्थ हे भगवन् ! आप रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द से रहित हैं, अमूर्तीक हैं, फिर भी उन्हें जानते हैं । आप सबको जानते हैं, पर आपको कोई नहीं जान पाता । यद्यपि आपका मन से भी कोई स्मरण नहीं कर सकता, तथापि मैं अपने बाल-साहस से आपका क्षण-क्षण में स्मरण करता हूँ ।।३४।। अगाधमन्यैर्मनसाप्यलंघ्यं, निष्किचनं प्रार्थितमर्थवद्भिः। विश्वस्य पारं तमदृष्टपारं, पति जिनानां शरणं व्रजामि ।।३५।।