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१५० : पंचस्तोत्र ततस्त्रिलोकीनगराधिदेवं नित्यं परंज्योतिरनंतशक्तिम् । अपुण्यपापं परपुण्यहेतुं, नमाम्यहं वन्द्यमवन्दितारम् ।।३३।। इसीलिये शाश्वत तेजोमर. क्ति अमनल-न पिसाः : पुण्य पाय बिन, परम पुण्य के कारण, परमोत्तम गुणधाम ।। वन्दनीय, पर जो न और को, करै वन्दना कभी मुनीश । ऐसे त्रिभुवन-नगर-नाथ को, करता हूँ प्रणाम घर शीश ।। ३३ ।। ___ टीका-ततस्तस्मात्कारणात् अहं त्रिलोकीनगराधिदेवं नमामि । त्रयाणां लोकानां समाहारस्त्रिलोकी सैव नगरं तस्याधिदेवः स्वामी तं । कोदृशं देवं? नित्यं शश्वद्भावापन्नं । पुनः कथंभूतं ? परंज्योतिषा परं ज्ञानेनानंतवीर्य यस्य स तं । पुनः कथंभूतं? न विद्येते पुण्यपापे ग्रस्य तं । पुनः परेषां प्राणिनां पुण्येहेतुः पुण्यकारणं तं । पुनः कथंभूतं ? वन्य सुरा-सुरादिशतेन्द्रैस्तुत्यं । पुनः कथंभूतं ? अवंदितारं अवंदकं । वंदते. ऽसौ बंदकः न वंदकोऽवंदकस्तं ।।३३।।
अन्धयार्थ--(ततः ) इसलिये ( अहम् ) मैं (त्रिलोकीनगराधिदेवम् ) तीन लोक रूप नगर के अधिपति (नित्यम्) विनाश रहित, (परम्) श्रेष्ठ ( ज्योतिः ) ज्ञान ज्योतिस्वरूप ( अनन्तशक्तिम् ) अनन्तवीर्य से सहित, ( अपुण्यपापम् ) स्वयं पुण्य और पाप से रहित होकर भी ( परपुण्यहेतुम् ) दूसरे के पुण्य के कारण तथा ( वन्द्यम् ) वन्दना करने के योग्य होकर भी स्वयं ( अविन्दतारम् ) किसी को नहीं वन्दनेवाले ( भवन्तम्) आपको ( नमामि ) नमस्कार करता हूँ।
भावार्थ हे भगवन् ! आप तीन लोक के स्वामी हैं, आपका कभी विनाश नहीं होता, सर्वोत्कृष्ट हैं, केवलज्ञानरूप ज्योति से प्रकाशमान हैं, आपमें अनन्त बल है, आप स्वयं पुण्य-पाप से रहित हैं, पर अपने भक्तजनों के पुण्यबन्ध में निमित्तकारण हैं। आप किसी को नमस्कार नहीं करते, पर सब लोग आपको नमस्कार करते हैं, आपकी इस विचित्रता से मुग्ध होकर मैं आपके लिये नमस्कार करता हूँ ।।३३।।