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विषापहारस्तोत्रम् : १४९ भावार्थ---स्तुति में आपके समस्त गुण कहने की सामर्थ्य नहीं है, इसलिये उनका अन्त हो जाता है, अन्य प्रकार से उनका अन्त संभव नहीं है ।।३१।। स्तुत्या परं नाभिमतं हि भक्त्या, स्मृत्या प्रणत्या च ततो भजामि । स्मरामि देवं ! प्रणमामि नित्यम्, केनाप्युपायेन फलं हि साध्यम् ।। किन्तु न केवल स्तुति करने से, मिलता है निज अभिमत फल । इससे प्रभु को भक्तिभाव से, ता हूँ, मीदिन प्रसिपल । स्मृति करके सुमरन करता हूँ, पुनि विनम्र हो नमता हूँ। किसी यत्न से भी, अभीष्ट-साधन की इच्छा रखता हूँ।। ३२ ।।
टीका-भो देव ! हि निश्चितं । परें केवलं । स्तुत्या कृत्वा मनोऽभिलषितं न । तत्तस्मात्कारणात् भक्त्या देवमहं भजामि । च पुनः । देवं नित्यं स्मरामि । च पुनः । प्रणत्या देवं नित्यं प्रणमामि । हि निश्चितं प्राणिनां केनाप्युपायेन गुणानां फलं साध्यमुपार्जनीयं ।।३२ ।।
अन्वयार्थ--( स्तुत्या हि) स्तुति के द्वारा ही ( अभिमतम् न) इच्छित वस्तु की सिद्धि नहीं होती, (परम् ) किन्तु (भक्त्या स्मृत्या च प्रणत्या) भक्ति, स्मृति और नमस्कृति से भी होती है, (ततः) इसलिये मैं (नित्यम् ) हमेशा ( देवम् भजामि, स्मरामि, प्रणमामि) आपकी भक्ति करता हूँ, आपका स्मरण करता हूँ, और (हि ) क्योंकि ( फलम्) इच्छित वस्तु की प्राप्तिरूप फल को (केन अपि उपायेन) किसी भी उपाय से (साध्यम्) सिद्ध कर लेना चाहिए।
भावार्थ हे भगवन् ! आपकी स्तुति से, भक्ति से, स्मृतिध्यान से और प्रणति से जीवों को इच्छित फलों की प्राप्ति होती है, इसलिये मैं प्रतिदिन आप की स्तुति करता हूँ, भक्ति करता हूँ, ध्यान करता हूँ और नमस्कार करता हूँ। क्योंकि मुझे जैसे बने तैसे अपना कार्य सिद्ध करना है ।।३२।।