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१४८ : पंचस्तोत्र होते हैं। सचमुच में (क्वचित् काले) किसी काल में (तथा) वैसा ( कः अपि नियोगः) कोई नियोग-नियम ही होता है । (हि) क्योंकि (शीतद्युतिः) चन्द्रमा ( अम्बुधिम् पूरयामि ) मैं समुद्र को पूर्ण कर दूं ( इति ) इसलिये ( उदंशुः न भवति ) उदित नहीं होता किन्न ( स्तराम् अयुटेगि) सभा से ही उदित होता है।
भावार्थ-जिस प्रकार चन्द्रमा यह इच्छा रखकर उदित नहीं होता कि मैं समुद्र को लहरों से भर दूं, पर उसका वैसा स्वभाव ही है कि चन्द्रमा का उदय होने पर समुद्र में लहरें उठने लगती हैं, इसी प्रकार आपको यह इच्छा नहीं है कि मैं कुछ बोलूँ, पर वैसा स्वभाव होने से स्वयं ही आपके वचन प्रकट होने लगते हैं। गुणा गभीराः परमाः प्रसन्नाः, बहुप्रकारा बहवस्तवेति । दृष्टोऽयमन्तस्तवने न तेषाम्, गुणो गुणानां किमतः परोऽस्ति ।। हे प्रभु, तेरे गुण प्रसिद्ध हैं, परमोत्तम हैं, गहरे हैं। बहु प्रकार हैं, पाप रहित हैं. निज स्वभाव में ठहरे हैं। स्तुति करते करते यों देखा, छोर गुणों का आखिर में। इनमें जो नहिं कहा, रहा वह, और कौन गुण जाहिर में ।। ३१ ।।
टीका-भो नाथ ! तव भगवतो गुणा गभीराः अगाधाः । परमा उत्कृष्टाः । प्रसन्ना निर्मलाः । बहुप्रकारा नानाविधाः । बहवोऽन्नता । इति स्तवनेन कृत्वा । गुणानामयन्तः पारो दृष्टस्तेषां गुणानामन्तः परः किमस्ति ।।३१।। ____ अन्वयार्थ (तव) आपके (गुणाः ) गुण ( गभीराः ) गम्भीर (परमाः) उत्कृष्ट (प्रसन्नाः) उज्ज्वल (बहुप्रकाराः ) अनेक प्रकार के और ( बहवः ) बहुत ( इति अयम् ) इस प्रकार ( स्तवनेन) स्तुति के द्वारा ही ( तेषां गुणानां) उन गुणों का (अन्तो दृष्टः) अन्त देखा गया है । (अतः परः गुणानां अन्त: किम् अस्ति) इसके सिवाय गुणों का अन्त क्या होता है ? अर्थात् नहीं ।