SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विधापहारस्तोत्रम् : १४७ (निर्दोषताम् ) निर्दोषता को (न विभावयन्ति ) नहीं अनुभव करते हैं, अर्थात् सभी करते हैं । जैसे ( यः) जो ( ज्वरेण मुक्तः 'भवति') ज्वर से मुक्त हो जाता है । ( स: ) वह ( स्वरेण सुगम: 'भवति' ) स्वर से सुगम हो जाता है । अर्थात् स्वर से उसकी अच्छी तरह पहिचान हो जाती है । भावार्थ- आपके वचन नानार्थ होकर भी एकार्थ हैं। यह प्रारम्भ में विरोध मालूम होता है, पर अन्त में उसका इस प्रकार परिहार हो जाता है कि आपके वचन स्याद्वाद सिद्धान्त से अनेक अर्थों का प्रतिपादन करनेवाले हैं, फिर भी एक ही प्रयोजन को सिद्ध करते हैं, कात् पूर्जामा लिोसा रहित हैं। हे भगवन् ! आपके हितकारी वचनों को सुनकर यह स्पष्ट मालूम हो जाता है कि आप निर्दोष हैं, क्योंकि सदोष पुरुष वैसे वचन नहीं बाल सकता, जैसे कि किसी की अच्छी आवाज सुनकर साफ मालूम हो जाता है कि वह ज्वर से मुक्त है, क्योंकि ज्वर से पीड़ित मनुष्य का स्वर अच्छा नहीं होता ।।२१।। न क्वापि वाञ्छा ववृते च वाक्ते, काले क्वचित्कोऽपि तथा नियोगः । न पूरयाम्यम्बुधिमित्युदंशुः स्वयं हि शीतद्युतिरभ्युदेति ।।३०।। यद्यपि जग के किसी विषय में, अभिलाषा तव रही नहीं । तो भी विमल वाणी तव खिरती, यदा कदाचित् कहीं-कहीं ।। ऐसा ही कुछ है नियोग यह, जैसे पूर्णचन्द्र जिनदेव । ज्वार बढ़ाने को न ऊगता. किन्तु उदित होता स्वयमेव ।। ३० ।। टीका--भो देव ! तब भगवतः क्वापि कस्मिश्चिदपि वस्तुनि वांछा न । च पुन: वाग्ववृते प्रवर्तिता दिव्यध्वनिः प्रवर्तित इति भावः । क्वचित्काले कोऽपि अनिर्वचनीयस्तथा नियोगोऽस्ति । शीतद्युतिश्चन्द्रः अम्बुधि पूरयामीत्युदंशुर्न हि स्वयमभ्युपैति । उदेति क्वचित्काले कोऽपि यथा तस्य नियोगोऽस्ति तथैवेति भावः ।।३०।। __ अन्वयार्थ (ते ) आपकी (क्वापि ) किसी भी वस्तु में (वाञ्छा न ) इच्छा नहीं हैं, (च) और ( वाक् ववृते ) वचन प्रवृत्त
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy