________________
१४६ : पंचस्तोत्र पुरुष के भी (देवव्यवहारम् आहुः ) देव शब्द का व्यवहार करना कहते हैं । सो ठीक ही है (हि) क्योंकि ( गतस्य दीपस्य) बुझे हुम दीपक का नंगितलं सदना (घ) और ( कपालस्य ) फूटे हुए घड़े का ( मङ्गलत्वम् ) मङ्गलपन ( दृष्टम् ) देखा गया है ।
भावार्थ हे भगवन् ! लौकिक मनुष्य रागी-द्वेषी जीवों को भी 'देव' शब्द से व्यवहार करते हैं, सो सिर्फ लोकव्यवहार से ही किसी बात की सत्यता नहीं होती । क्योंकि लोक में कितनी ही बातों का उल्टा व्यवहार होता है । जैसे कि जब दीपक बुझ जाता है, तब लोग कहते हैं कि दीपक बढ़ गया । और जब घड़ा फूट जाता है, तब लोग कहने लगते हैं कि घड़े का कल्याण हो गया ।।२८।। नानार्थमेकार्थमदस्त्वदुक्तम्, हितं वचस्ते निशम्य वक्तुः । निर्दोषतां के न विभावयन्ति, ज्वरेण मुक्तः सुगम: स्वरेण ।।२९।। नयप्रमाणयुत अतिहितकारी, वचन आपके कहे हुए। सुनकर श्रोताजन तत्त्वों के, परिशीलन में लगे हुए हैं। वक्ता का निर्दोषपना जानेंगे, क्यों नहिं हे गुणमाल । ज्वरविमुक्त जाना जाता है, स्वर पर से सहजहि तत्काल ।। २९ ।।
टीका–भो देव ! तवदुक्तं त्वया प्रणीतमदः प्रसिद्धवची । निशम्य श्रुत्वा । ते तव । वक्तुर्निर्दोषतां दोषरहितत्वं । के पुरुषा न विभावयन्ति । ज्वरेण मुक्तः पुमान् स्वरेण कृत्वा सुगमः सुखेन ज्ञेयो भवति । कीदृशं वचो ? नानाबहवोऽर्था यस्मिन् तत् । कथंभूतमेकोऽद्वितीयः पूर्वापरविरोधरहितः अर्थो यस्मिन् तत् । पुनः हितं हितकारौ । दोषन्निष्क्रान्तो निर्दोषस्तस्य भावस्ताम् ।।२९।।
अन्वयार्थ---( नानार्थम् ) अनेक अर्थों के प्रतिपादक तथा (एकार्थम् ) एक ही प्रयोजन युक्त ( त्वदुक्तम् ) आयके कहे हुए (अदः हितं वचः) इन हितकारी वचनों को (निशम्य ) सुनकर (के) कौन मनुष्य (ते वक्तुः) आपके जैसे वक्ता की