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विषापहारस्तोत्रम् : १४५ होता है, (तत्) वह फर (अनां देवा इति जागत; दूसरे को 'देवता है' इस तरह जाननेवाले पुरुष को (न तु) नहीं होता । क्योंकि (हरिन्पणिम् ) हरे मणि को (काचधिया) काच की बुद्धि से (दधानः) धारण करनेवाला पुरुष (तं तस्य बुद्ध्या वहतः) हरे मणि को हरे मणि की बुद्धि से धारण करनेवाले पुरुष की अपेक्षा ( रिक्त: न) दरिद्र नहीं है ।
भावार्थ-हे भगवन् ! जो आपको नमस्कार करता है, पर आपके स्वरूप को नहीं जानता, उसे भी जो पुण्यबंध होता है, वह किसी दूसरे को देवता मानने वाले पुरुष को नहीं होता । जिस तरह कोई अनजान मनुष्य हरित मणि को पहन कर उसे काच समझता है, तो वह दूसरे की निगाह में जो मणि को मणि समझ कर पहिन रहा है, निर्धन नहीं कहलाता । वे दोनों एक जैसी सम्पत्ति के अधिकारी कहे जाते हैं। श्रद्धा और विवेक के साथ प्राप्त हुआ अल्प ज्ञान भी प्रशंसनीय है ।।२७।। प्रशस्तवाचश्चतुराः कषायैः, दग्धस्य देवव्यवहारमाहुः । गतस्य दीपस्य हि नन्दितत्वम्, दृष्टं कपालस्य च मङ्गलत्वम् ।।२८।। विशद मनोज्ञ बोलनेवाले, पंडित जो कहलाते हैं। क्रोधादिक से जले हुए को, वे यों 'देव' बताते हैं। जैसे 'बुझे हुए' दीपक को. 'बढ़ा हुआ' सब कहते हैं। और कपाल बिघट जाने को, 'मंगल हुआ' समझते हैं ।। २८ ।।
टीका-प्रशस्ता प्रशस्या वाग् वाणी येषां ते चतुरा पुमांसः । कषायै; क्रोधमानमायालोभादिभिः । दग्धस्य पुंसः । देव परमेश्वरस्तस्य व्यवहारमाहुर्भणन्ति स्म । हि निश्चितं । तैः पुरुषै । गतस्य प्रनष्टस्य दीपस्य नंदितत्वं वर्धमानत्व दृष्टं । च पुनस्तै, कपालस्य खर्परस्य मंगलत्वं मांगल्यं दृष्टम् ।।२८।।
__ अन्वयार्थ—(प्रशस्तवाचः) सुन्दर बोली बोलनेवाले ( चतुराः ) चतुर मनुष्य (कषायैः दग्धस्य) कषायों से जले हुए