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१४४ : पंचस्तोत्र
भाग्यमे । अथ सूर्यस्य मनुः राहुविघातोस्ति । हविर्भुजोग्नेरंभस्तोयं विघातं । अम्बुनिधेः समुद्रस्य कल्पान्तवातो विघातः । संसारभोगस्य स्रक्चन्दनवनितादेर्वियोगभावो विघातः । इति विपक्षपूर्वाः सर्वे । त्वमेव नेति भावः ॥२६॥
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अन्वयार्थ - - - ( स्वर्भानुः ) राहु ( अर्कस्य ) सूर्य का, ( अम्भः ) पानी का ( हविर्भुजः ) अग्निका ( कल्पांतवातः ) प्रलयकाल की वायु ( अम्बुनिधेः ) समुद्र का तथा ( वियोगभाव: ) विरहभाव ( संसारभोगस्य ) संसार के भोगों का (विघातः ) नाश करनेवाला है, इस तरह ( त्वदन्ये) आपसे भिन्न सब पदार्थ (विपक्षपूर्वाभ्युदयाः सन्ति' ) विनाश के साथ ही उदय होते हैं ।
भावार्थ- हे प्रभो ! संसार के सब पदार्थ अनित्य हैं, सिर्फ आप ही सामान्य स्वरूप की अपेक्षा नित्य हैं, अर्थात् आप जन्ममरण से रहित हैं और आपकी यह विशुद्धता भी कभी नष्ट नहीं होती है ।। २६ ।।
अजानतस्त्वां नमतः फलं यत्, तज्जानतोऽन्यं न तु देवतेति । हरिमणि काचधिया दधानः, तं तस्य बुद्धया वहतो न रिक्तः ||२७|| बिन जाने भी तुम्हें नमन करने से जो फल फलता है । वह औरों को देव मान, नमने से भी नहिं मिलता है ।। ज्यों मरकत को काच मानकर, करगत करनेवाला नर । समझ सुमणि जो काच गहे, उसके सम रहे न खाली कर || २७ ॥ टीका- भो नाथ! त्वामष्टविधप्रातिहार्यविभवालंकृतं त्वामजानतो नमतः पुरुषस्य यत्फलं स्यात् । तु पुनरन्यं कंचन देवतेति जानतो नमतः पुरुषस्य तत्फलं न स्यात् । काचधिया काचबुद्धया हरिन्मणि नीलरत्नं दधानः पुमांस्तस्य हरिन्मणर्बुद्धया तं काच वहतः पुरुषात् सकाशात् रिक्तो न ||२७||
अन्वयार्थ - (त्वाम् ) आपको (अजानतः ) विना जाने ही ( नमतः ) नमस्कार करनेवाले पुरुष को ( यत् फलम् ) जो फल