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विषापहारस्तोत्रम् : १४३ निन्दास्तुत्यलंकारविष्ट भेन त्वमेव मुक्तोऽन्ये सर्वेऽपि संसारिणः इति तात्पर्यम् ।।२५।।
अन्वयार्थ (त्वया) आपके द्वारा (एकः) एक ( विमुक्तेः ) मोक्ष का ही ( मार्गः) मार्ग (ददृशे ) देखा गया है
और ( परेण) दूसरों के द्वारा ( चतुर्गतीनाम् ) चारों गतियों का (गहनम्) सघन वन ( ददृशे ) देखा गया है, मानो इसीलिये (त्वम् ) आपने (नया सर्व पृष्ट ) मैंने सब बार देखा है, इति स्मयेन ) इस अभिमान से ( कदाचित) कभी भी ( भुजम् ) अपनी भुजा को ( मा आलुलोकः) नहीं देखा था।
भावार्थ-घमण्डियों का स्वभाव होता है कि वे अपने को बड़ा समझकर बार-बार अपनी भुजाओं की तरफ देखते हैं, पर आपने घमण्ड से कभी अपनी भुजा की तरफ नहीं देखा । उसका कारण यह है कि आप सोचते थे कि मैंने तो सिर्फ एक मोक्ष का ही रास्ता देखा है और देवी-देवता चारों गतियों के रास्तों से परिचित हैं इसलिये मैं उनके सामने अल्पज्ञ हूँ। अल्पज्ञ का बहुज्ञानियों के सामने अभिमान कैसा? श्लोक का तात्पर्य यह है कि आप अभिमान से रहित हैं और निश्चित ही मोक्ष को प्राप्त होने वाले हैं, परन्तु अन्य देवी-देवता अपने-अपने कार्यों के अनुसार नरक आदि चारों गतियों में घूमा करते हैं ।।२५।। स्वर्भानुरर्कस्य हविर्भुजोऽम्भः, कल्पान्तवातोऽम्बुनिधेर्विघातः । संसारभोगस्य वियोगभावो विपक्षपूर्वाभ्युदयास्त्वदन्ये ।।२६।। रवि को राहु रोकता है, पावक को वारि बुझाता है। प्रलयकाल का प्रबल पवन, जलनिधि को नाच नचाता है ।। ऐसे ही भव-भोगों को, उनका वियोग हरता स्वयमेव । तुम सिवाय सब की बढ़ती पर, घातक लगे हुए हैं देव ।। २६ ।।
टीका-भो देव ! त्वत्तः सकाशात् अन्ये यावन्तः पदार्थाः सन्ति तावन्ते विपक्षपूर्वाभ्युदयाः सन्ति । विपक्षपूर्वः शत्रुपूर्वः अभ्युदयो