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________________ १४२ : पंचस्तोत्र टीका--भो देव ! मोहस्य मोहनीयकर्मणः । त्वयि विषये विरोधैं स्पर्धायितुं को मोहः भ्रमः । समानबलाय स्पर्धा न तु न्यूनाधिकयोः । तस्य मोहस्य स महान् लाभो यः सुरासुरा देवदानवादयोऽभिभूताः पराभूता इति त्रैलोक्ये पटहो दत्तः ! कुत एवं भ्रमत: ? बलवभिः सह विरोधी मूलस्य नाशो भवति ।।२४।। अन्वयार्थ—मोह के द्वारा ( त्रिलोक्याम्) तीनों लोकों में (पटहः ) विजय का नगाड़ा ( दत्तः) दिया गया-बजाया गया उससे जो ( सुरासुराः ) सुर और असुर ( अभिभूता: ) तिरस्कृत हुए ( सः) वह (तस्य ) उस मोह का { महान् लाभः) बड़ा लाभ हुआ, किन्तु ( त्वयि ) आपके विषय में ( विरोद्धम् ) विरोध करने के लिये ( मोहस्य) मोह को ( कः) कौनसा ( मोहः ) भ्रम हो संकता था अर्थात् कोई नहीं, क्योंकि ( बलवद्विरोधः ) बलवान के साथ विरोध करना (मूलस्य नाश:) मानो मूल का नाश करना है। भावार्थ- हे भगवन् ! जिस मोह ने संसार के सब जीवों को अपने वश में कर लिया, उस मोह को भी आपने जीन लिया है अर्थात् आप मोहरहित रागद्वेषशून्य हैं ।।२४।। मार्गस्त्वयैको ददृशे विमुक्तेः, चतुर्गतीनां गहनं परेण । सर्वं मया दृष्टमिति स्मयेन, त्वं मा कदाचित् भुजमालुलोकः ।।२५।। तुमने केवल एक मुक्ति का, देखा मार्ग सौख्यकारी । पर औरों ने चारों गति के, गहन पंथ देखे भारी ।। इस से सब कुछ देखा हम ने. यह अभिमान ठान करके। हे जिनवर, नहिं कभी देखना, अपनी भुजा तान करके ।। २५ ।। टीका-भो नाथ ! त्वया भगवता । एकोऽद्वितीयो विमुक्तांगों ददृशे दर्शितः । परेण हरिहरादिदेवेन । चतुर्गतीनां नरकतिर्यग्देवमनुष्यपर्याणां । गहनं ददृशे दर्शितं । भो देव ! मया सर्वं दृष्टमिति स्मयेनेत्यहकारभरेण त्वं कदाचित् भुजं निजबाहुशिखरं मालुलोक: माद्राक्षीः । इति
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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