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विधापहारस्तोत्रम् : १४१ करकमले । कृतं हेम सुवर्णं अवश्यं निश्चितमाश्मनं पाषाणोद्भवं इति विलोक्य पुनस्त्यजति जहतीत्यर्थः ।।२३।।
अन्वयार्थ—(देव) हे नाथ ! (ये) जो मनुष्य, आप (तस्य आत्मज: ) उसके पुत्र हो और (तस्य पिता ) उसके पिता हो ( इति ) इस प्रकार (कुलम् प्रकाश्य) कुल का वर्णन कर (त्वाम् अवगायन्ति ) आपका अपमान करते हैं, (ते) वे ( अद्य अपि ) अ श्री (पाणौ शतम् ) हाल में आये हाए ( हेम) सुवर्ण को (आश्मनम् ) पत्थर से पैदा हुआ है, (इति) इस हेतु से (पुनः ) फिर ( अवश्यं त्यजन्ति ) अवश्य ही छोड़ देते हैं ?
भावार्थ- एक तो सुवर्ण हाथ नहीं लगता, यदि किसी तरह लग भी जावे तो उसे यह सोचकर कि इसकी उत्पत्ति पत्थरों से हुई है, फिर फेंक देना मूर्खता है । इसी तरह आपका श्रद्धान व ज्ञान सबको नहीं होता। यदि किसी को हो भी जावे तो वह आपको मनुष्य-कुल में पैदा बतला कर फिर भी छोड़ देता है, यह सबसे बढ़कर मूर्खता है । सुवर्ण यदि शुद्ध है, चाहे वह पत्थर से नहीं, दुनियाँ के किसी हल्के पदार्थ से उत्पन्न हुआ हो तो बाजार में उसकी कीमत पूरी ही लगेगी । और मैल सहित है- अशुद्ध है, तो किसी भी अच्छे पदार्थ से उत्पन्न होने पर भी उसकी पूरी कीमत नहीं लग सकती । इस प्रकार जो आत्मा शुद्ध है, कर्मपल से रहित है, भले ही उस पर्याय में नीच कुल में पैदा हुआ हो, वह पूज्य कहलाता है, और यदि वही आत्मा उच्च कुल में पैदा होकर भी अशुद्ध है—मलिन है तो उसे कोई पूछता भी नहीं है ।।२३।। दत्तश्चिलोक्यां पटहोऽभिभूताः,सुरासुरास्तस्य महान्स लाभः । मोहस्थ मोहस्त्वयि को विरोधु, मूलस्य नाशो बलवद्विरोधः ।।२४।। तीन लोक में ढोल बजाकर, दिया मोह ने यह आदेश । सभी सुरासुर हुए पराजित, मिली विजय यह उसे विशेष ।। किंतु नाथ, वह निबल आप से, कर सकता था कहाँ विरोध । वैर ठानना बलवानों से, खो देता है खुद को खोद ।। २४ ।।