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विषापहारस्तोत्रम् : १३९ श्रीमान् कृपणं साधु न पश्यति । यथा अन्धकारस्थायी पुमान् प्रकाशस्थितं पुरुषमीक्षते पश्यत्ति तथाऽसौ प्रकाशस्थायी पुमान् तमस्थं नक्षते नालोकयति । प्रकाशे स्थितस्तं । अन्धकारे तमसि तिष्ठतीतितम् ।।२१।। __ अन्वयार्थ (नि:स्वः ) निर्धन पुरुष ( श्रिया परम् ) लक्ष्मी से श्रेष्ठ अर्थात् सम्पन्न मनुष्य को (साधु ) अच्छी तरह आदरभाव से ( पश्यति) देखता है, झिन (त्वदन्य.) आरो भित्र ( कञ्चित् ) कोई (श्रीमान् ) सम्पत्तिशाली पुरुष (कृपणम् ) निर्धन को ( साधु न पश्यति ) अच्छे भावों से नहीं देखता । ठीक है ( अन्धकारस्थायी ) अन्धकार में ठहरा हुआ मनुष्य (प्रकाशस्थितम्) उजाले में ठहरे हुए पुरुष को ( यथा) जिस प्रकार ( ईक्षते) देख लेता है ( तथा ) उसी प्रकार (असौ ) उजाले में स्थित पुरुष (तमःस्थम्) अँधेरे में स्थित पुरुष को (न ईक्षते) नहीं देख पाता ।
भावार्थ हे प्रभो ! संसार के श्रीमान् निर्धन पुरुषों को बुरी दृष्टि-निगाह से देखते हैं, पर आप श्रीमान् होते हुए भी ज्ञानादि सम्पत्ति से रहित मनुष्यों को बुरी निगाह से नहीं देखते । उन्हें भी अपनाकर हित का उपदेश देकर सुखी करते हैं । इस तरह आप संसार के अन्य श्रीमानों से भिन्न ही श्रीमान् हैं। दोनों की श्रीलक्ष्मी में भेद जो ठहरा । उनके पास रुपया, चाँदी, सोना वगैरह जड़ लक्ष्मी है, पर आपके पास अनंतज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, अनन्त चतुष्टयरूप लक्ष्मी है ।।२१।। स्ववृद्धिनिःश्वासनिमेषभाजि, प्रत्यक्षत्मानुभवेपि मूढः । किं चाखिलज्ञेयविवर्तिबोधस्वरूपमध्यक्षमवैति लोकः ।।२२।। निज शरीर की वृद्धि श्वास-उच्छवास और पलकें झपना । ये प्रत्यक्ष चिह्न हैं जिसमें ऐसा भी अनुभव अपना ।। कर न सकें जो तुच्छबुद्धि वे, हे जिनवर ! क्या तेरा रूप । इन्द्रियगोचर कर सकते हैं, सकल ज्ञेयमय ज्ञानस्वरूप ? ।।२२।।