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________________ १३८ : पंचस्तोत्र की थी, तब सच्चा प्रातिहार्य--प्रतीहारपना इन्द्र के ही हो सकता है, आपके कैसे हो सकता है ? क्योंकि आपने प्रतीहार का काम थोड़े ही किया था ! फिर भी यदि आपके प्रातिहार्य होता ही है, ऐसा कहना है तो उपचार से कहा जा सकता है । क्योंकि आप इन्द्र के उस काम में प्रेरक थे । अथवा श्लोक का ऐसा भी भाव हो सकता है-'तीन लोक के जीव भगवान् की सेवा करो' इस नियम को प्रचलित करने के लिये इन्द्र ने हाथ में दण्ड लिया था इसलिये प्रातिहार्यत्व इन्द्र के ही बन सकता है, आपके नहीं । अथवा आपके भी हो सकता है, क्योंकि आपसे ही इन्द्र की उस क्रिया के कर्मकारक का सम्बन्ध होता था । यहाँ एक और भी गुप्त अर्थ है, वह इस प्रकार है-लोक में प्रतिहार्य पद का अर्थ आभूषण प्रसिद्ध है। भगवान् के भी अशोक वृक्ष आदि आठ प्रातिहार्य-आभूषण होते हैं । यहाँ कवि प्रातिहार्य पद के श्लेष से पहले यह बतलाना चाहते हैं कि संसार के अन्य देवों की तरह आपके शरीर पर प्रातिहार्य नहीं हैं । इन्द्र के प्रातिहार्य-प्रतिहारपना हो, पर आपके प्रातिहार्य-आभूषण कहाँ से आये ? फिर उपचार पक्ष का आश्रय लेकर कहते हैं कि आपके भी प्रातिहार्य हो सकते हैं। उसका कारण है 'तत्कर्मयोगात्' अर्थात् आभूषणों के कार्य सौंदर्यवृद्धि के साथ सम्बन्ध होना है ।।२०।। श्रिया परं पश्यति साधु निःस्व: श्रीमान कश्चित्कृपणं त्वदन्यः । यथा प्रकाशस्थितमन्धकारस्थायीक्षतेऽसौ न तथा तमः स्थम् ।। धनिकों को तो सभी निधन, लखते हैं, भला समझते हैं। पर निधनों को तुम सिवाय जिन, कोई भला न कहते हैं । जैसे अन्धकारवासी उजियालेवाले को देखे । वैसे उजियालावाला नर, नहिं तमवासी को देखे ।। २१ ।। टीका-भो देव ! त्वत्तः सकाशात् अन्य: कः निस्वः दरिद्रिश्रिया लक्ष्म्या परमुत्कृष्टं साधु यथा स्यात्तथा पश्यति विलोकयति । त्वदन्यः
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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